Thursday 1 September 2016


तेरी जदीद मशीनें कहां खरीदेगा,अरब का शेख जवां लड़कियां खरीदेगा

पनाह देते रहो दुश्मनों को हमारे,तआल्लुकात निभाते रहो दुबई की तरह

अब इस्लामाबाद में भी महफूज नहीं,अच्छे खासे रामनगर में रहते थे.....

वे जो दिल्ली से हिजरत कर गये थे,कराँची को भी खाली कर रहे हैं......


अगर आप इन शेरों पर वाह वाह कर रहे हैं तो इस शायर की शख्सियत और किरदार के बारे में भी जरूर जानना चाहेंगे- ये शेर जिस शायर के जेह्न की देन हैं वे हैं शाहिद अंजुम,ऊना हिमाचल प्रदेश की धरती से।शाहिद और मेरी पहली मुलाकात कोई सात साल पहले हुई थी।मुंबई के एक बिल्डर शायर ने हमदोनों को गुजरात में लगातार सात दिन की अठारह नशिस्तों के लिए एक साथ आमंत्रित किया था।यह और बात है कि इन सात दिनों के लिए हमें न तो तय रकम दी गयी,न कायदे से खिदमत की गयी।बहुत कटु अनुभव रहा और हम यह सोचने को विवश हो गये कि धूर्त आयोजकों से निपटने के लिए जो तरीके कुमार  विश्वास और राहत इंदौरी जैसे लोग अपनाते हैं,हमें भी अपनाना चाहिए।तआल्लुक निभाने की फिक्र करके अपना खून नहीं जलाना चाहिए,वर्ना धन और धर्म दोनों जाता है।खैर इस प्रोग्राम के जरिये दो अच्छी बाते हुईं।पहली यह कि शाहिद अंजुम जैसा नायाब दोस्त मिला और दूसरी यह कि मोरारी बापू जैसे संत के आश्रम में जाकर उन्हें करीब से देखने का मौका मिला।शाहिद से जब तब छोटी मुलाकातें और फोन पर बातें होती रहीं।लेकिन पिछले दिनों जब उनका मुंबई आना हुआ तो फिर से उनके साथ काफी सारा वक्त गुजारने का मौका मिला।जब उनसे आज के हालात पर,राजनीति पर और अदबी मसलों पर चर्चा हुई तब पता चला कि मेरा यह दोस्त ज्यादेतर शायरों की तरह सिर्फ मुशायरों की शायरी तक महदूद नहीं है बल्कि देश और समाज के गंभीर मुद्दों पर भी अपनी बहुत बेशकीमती राय रखता है।उसने बातों बातों में इस्लाम और इस्लाम के नाम पर बनाये गये इदारों की पोल खोलनी शुरू की तो मैं अवाक रह गया । 

शाहिद ने बताया कि इस्लाम में हज के बाद ऊँट या बकरे की कुर्बानी की एक परंपरा है।इस एक परंपरा को निभाने की कवायद में अरबों रुपये एक दिन में फूँक दिये जाते हैं।मुसलमान ये समझते हैं कि हमने गोश्त खाकर अपना फर्ज अदा कर दिया,अपने रब को राजी कर लिया जबकि कुर्आन में इंसानियत के रिश्ते को इबादत की परंपरा से ऊपर रखा गया है,यहां तक कहा गया है कि अगर आपका पड़ोसी भूखा है तो आपका खाना हराम है। नवाज,रोजा,हज सब कुछ माफ कर सकता है अल्लाह लेकिन मजहब,जबान या सियासत.... किसी भी आधार पर अगर कोई जुल्म करता है तो हरगिज बख्शा नहीं जाएगा,जहन्नुम में उसे अपने किये की सजा भुगतनी ही पड़ेगी।जो अरबों रुपये कुर्बानी में स्वाहा कर दिये जाते हैं, उसे कोई बड़ा अस्पताल बनाने,कोई कालेज यूनिवर्सिटी खोलने या गरीब बच्चों की तालीम और वजीफे पर खर्च किया जाय तो अल्लाह को ज्यादे खुशी होगी,यह एक ऐसा टॉपिक है जिस पर बात करने के लिए कोई मौलबी राजी नहीं होता। 
          
हिंदुस्तानी मुसलमान अरब के इशारे पर चलते हैं जबकि अरब के लोग यहां से गये हिंदुस्तानी मुसलमानों के साथ गुलामों से बदतर सुलूक करते हैं।ऐसा मुल्क हमारा आदर्श कैसे हो सकता है।आज कश्मीर में जुल्म की बात बहुत जोशोखरोश से हो रही है।इस्लाम किसी मज्लूम पर जुल्म की इजाजत नहीं देता मगर इसी कश्मीर से इस्लाम के इन्हीं रखवालों के बीच से पांच लाख कश्मीरी पंडितों को पलायन करना पड़ा।कुर्आन तो कहता है कि बौद्ध,जैन,सिक्ख,इसाई,हिंदू किसी भी जाति या मजहब का इंसान अगर सच्चे इस्लाम के माननेवालों के बीच है तो पूरी तरह सुरक्षित है।फिर यह क्यों सुनाई पड़ता है कि बस से उतारकर लोगों को गोलियों से भून दिया गया,बेटियों की इज्जत लूट ली गयी,लोगों को अपनी जमीन और मकान छोड़कर भागने को मजबूर होना पड़ा।जुल्म तो जुल्म है ...उन निरीह लोगों पर हुआ जुल्म लोगों को क्यों नजर नहीं आता ?

आरती भी अजां पे बोझ हुई,मुरलीवाले को भी सताया गया
कलमा-ए-हक जो पढ़ नहीं पाए,उनके बच्चों का खूँ बहाया गया
मुस्तफाई निजाम के अंदर हर बिरहमन का खून पानी है,यही कश्मीर की कहानी है।
दर ब दर कर दिया गया उनको, जुल्म की राय में जो काफिर हैं
उन परिंदों का हाल मत पूछो,अपने ही घर में जो मुहाजिर हैं
चंद आतंकवादियों की सबब सख्त मुश्किल में जिंदगानी है, यही कश्मीर की कहानी है।

आज तो केंद्र में भाजपा की सरकार है .....फिर जामा मस्जिद पर इमाम बुखारी का कब्जा क्यों है...जामा मस्जिद जो सरकारी मस्जिद है, उस पर एक ही परिवार के लोगों की हुकूमत क्यों है....क्यों इसे सियासत का अड्डा बनने दे रहे हैं ?बुखारी जैसे गुमराह करने वाले गलत लोग जब धर्म के ठेकेदार हो जाएंगे तो धर्म की गलत तस्वीर आनी ही है।महमूद मदनी के खातों की जाँच क्यों नहीं होती ?

 मैंने जब शाहिद से यह पूछा कि हिंदुओं के लिए अक्सर काफिर शब्द का इस्तेमाल क्यों होता है,मासूम नौजवानों को यह कहके बरगलाया जाता है कि काफिरों को मारोगे तो जन्नत में जाओगे,कुर्आन में इसके बारे में क्या कहा है तो उन्होंने बताया कि काफिर उसे कहते हैं जो ईश्वर को न मानता हो  ...तो अपने अपने ईश्वर को तो सभी मानते हैं फिर कोई काफिर कैसे हुआ.... कुछ लोगों ने पूरी दुनिया के इस्लामीकरण का जुनून पाल रखा है जो पूरी तरह से गलत है।सूचना तकनीक के जमाने में जिसे जो सर्विस पसंद है, उसे अपनाएगा। आप किसी पर इस्लाम थोप नहीं सकते।बीसों मोबाइल कंपनियां बाजार में हैं,लोग अपनी अपनी पसंद के अनुसार उनका उपयोग कर रहे हैं।अगर इस्लाम लोगों को पसंद होगा तो खुद कबूल करेंगे, दहशत के बल पर मजहब नहीं बदला जा सकता।यह कारोबार वे लोग करते हैं जो धर्म का धंधा करते हैं।हिंदुस्तानी मुल्लों को सउदी अरब के लोग फंडिंग करते हैं,ये उनके इशारे पर काम करते हैं।फ्रांस में मोहम्मद साहब के कार्टून पर तो ये फतवे जारी कर देते हैं लेकिन अमरीका की ज्यादतियों और इस्लामिक देशों पर बमबारियों के खिलाफ कभी कोई फतवा या जुलूस नहीं निकालते,इससे यह साफ जाहिर होता है कि ये अमरीका से कितना डरे सहमे रहते हैं और किस तरह उसी के इशारों पर चलते हैं।अमरीका हथियारों का व्यापारी है,वह नहीं चाहता कि दुनिया में अमन चैन कायम रहे।दूसरी लड़ाई तेल की है,मेरा एक कतआ है-

        तेल पर जिनकी हुक्मरानी है,उनके नामो नसब से मिलता है
     ये जो दहशत के कारखाने हैं,इनका शजरा अरब से मिलता है

रूस का तेल दनिया में न पहुँचने पाये इसके लिए अमरीका ने अफगानिस्तान में तालिबान को प्रोजेक्ट किया।अरब में जब तक तेल नहीं था,पूरी दुनिया में आतंक का नामोनिशान नहीं था।इराक ने जब अमरीका को उसकी शर्तों पर तेल देने से मना किया तो अमरीका ने उसे बर्बाद कर दिया। सउदी अरब के शासकों को पता है कि अमरीका जब चाहे हमारी सत्ता पलट सकता है,इसलिए वे उसके इशारे पर आतंकवादियों और मजहबी इदारों की फंडिंग करते हैं ताकि दहशत का यह खेल कायम रहे।अमरीका ने बहुत चालाकी के साथ अपने आर्थिक,राजनीतिक और कारोबारी हितों के साधने के लिए इसे इस्लामी आतंकवाद घोषित कर दिया और हम जैसे गरीब मुल्कों ने इसे मान लिया।
अलीगढ़ और देवबंद के जिन इदारों से फतवे जारी होते हैं ,वे सीधे अरब के एजेंट के रूप में काम करते हैं।इनके फाइनेंस की मानिटरिंग होनी चाहिए, इनको बिल्कुल खुला नहीं छोड़ना चाहिए वर्ना मजहब के नाम पर डरानेवालों का धंधा बदस्तूर जारी रहेगा। जैसे डॉक्टर किडनी बेचने का धंधा कर रहे हैं,ये मुल्ले अपने कारोबार में लगे हैं,धर्म से इनका कोई वास्ता नहीं।


कुछ बातें निकलीं अदब के हवाले से.....यार आजकल कौन कितने पैसे ले रहा है मुशायरे पढ़ने के।आप बताइये उर्दू के बड़े शायर कौन हैं मंचों पर ....किसको सबसे ज्यादे मिलना चाहिए –शाहिद ने कहा।मैंने कहा- मुशायरों में आने जाने वालों में जो बड़े नाम दिखते हैं उनमें मुनव्वर राना,वसीम बरेलवी,राहत इंदौरी आदि हैं....इन्हें ही सबसे ज्यादे मिलता होगा।
जी नहीं.... बड़े शायर तो ये जरूर हैं लेकिन बड़ा पैसा इनको नहीं मिलता।ये तो पचास साठ हजार वाले शायर हैं।मुशायरों में आजकल सबसे ज्यादे पैसा मिलता है तीस साल के एक नये लड़के इमरान प्रतापगढ़ी को- एक से डेढ़ लाख रुपये।सिर्फ मुशायरों के दम पर आज वह बीस तीस करोड़ का आदमी हो गया है।खालिस नफरत की शायरी करता है,मदरसों और मस्जिदों के हवाले से लोगों को भड़काने का काम करता है और उसकी बात हमारे लोगों को इतना ज्यादे भाती है कि सबसे ज्यादे मुशायरों में आज वही बुलाया जा रहा है।यूपी की हुकूमत ने उसे यश भारती से नवाजा है। हमारे उर्दू अदब के तथाकथित बड़े शायरों ने भी उसे एक जमाने में खूब प्रोमोट किया लेकिन जब एक दिन वह इनकी ही छाती पर मूँग दलने लगा और पगड़ी उछालने लगा तब इन्होंने कहना शुरू किया कि यार जहाँ वो आए, वहाँ हमें मत बुलाओ।लेकिन अब क्या ....अब तो उसे हैदराबाद,देवबंद,बरेली और ऐसे ही तमाम नफरत के कारोबार करनेवाले इदारों ने अपनी गोद में बिठा लिया है।और तो और विडंबना यह है कि सरकारी पैसे से होनेवाले मुशायरों में भी  सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़नेवाली शायरी करने के लिये उसे बाअदब बुला लिया जाता है।यह बात साबित करती है कि हमारे नेताओं को भी ऐसे लोगों की सख्त जरूरत है,जो मजहबी मुद्दों पर अवाम को भड़काकर उनके लिए वोट जुटाने का काम कर सकें।देशप्रेम और मोहब्बत की बातें करने वाले शायर घर बैठे हैं। पूरी उम्र जिन्होंने उर्दू अदब की खिदमत की,वे एक कोने में पड़े हैं।हमने जो नफरत की फसल बो रखी है,वह उसे काट रहा है।क्या ऐसे लोगों के प्रति हुकूमत की कोई जिम्मेवारी नहीं बनती ? 

बंबई में एक जमाने में बहुत पाकिटमारी होती थी,हर मुसाफिर की जेब कटती थी, लेकिन जिस दिन पुलिस ने फैसला कर लिया कि पाकिटमारों को नहीं रहने देंगे तबसे खत्म हो गई पाकेटमारी।हमारे हुक्मरान ये चाहते नहीं कि नफरतें खत्म हों क्योंकि इसकी बुनियाद पर ही उनकी सारी सियासत है।
खैर .....हार के खौफ से पाला नहीं बदला हमने
      ऐ मोहब्बत तेरा रस्ता नहीं बदला हमने .....



.....और भी बहुत सारी बातें हैं लेकिन आज इतना ही.....किसी और दिन शाहिद की शानदार ग़ज़लें भी शेयर करूंगा।इन बातों पर हमारे आभासी दुनिया के दोस्त अपनी राय जरूर रखें।