Thursday, 15 September 2016

      मेरे पाँच गीत


                                             रास बिहारी पाण्डेय

1

खुशियों से आँगन महके
हर कोई गीत गाने लगा
बच्चे का जन्म क्या हुआ
घर भर तुतलाने लगा ।

कोई चाँद लाये
कोई तोड़ता है तारा
खुशियों के सागर का
ना कोई किनारा

हिचकी भूले से आये उसे,
तो घर भर दुलराने लगा ।

जन्म के ही साथ
जुड़ गये कितने रिश्ते
दादा नाना मामा
बुआ मौसी मौसे

कोमल कपोलों को चूमकर,
हर कोई रिश्ता जतलाने लगा ।

छूटी ठाकुरपूजा 
छूटी ठकुरानी
लोरी की धुन ही 
लागे अमृतबानी

भाँति भाँति के लिये खिलौने,
हर कोई रिझाने लगा ।



2

तेरे बिन ऐसे कटता है
हर दिन मेरा प्रवास में
जैसे राम बिना सीता के 
आये हों बनवास में ।

राम की एक अवधि थी लेकिन
अपने दिवस अनिश्चित
राम ने वन में बिताया हमको
मिले हैं शहर अपरिचित

शाप लगा है जाने किस 
नारद के उपहास में ।

जितना सरल समझ बैठे थे
उतना कठिन है जीवन
एक तुम्हारे बिना ही कितना
एकाकी है यह मन

खैर तेरी ही माँगी हमने 
हर पूजा उपवास में ।


3

नाम को अर्थ भी मिल गया 
ज़िंदगी ज़िंदगी हो गई
हमसफर जबसे तुम हो गये
धूप भी चाँदनी हो गई ।

क्या बताऊँ कि इस रूप में 
कौन सा एक रतन मिल गया
चाह थी पंखुड़ी की जिसे 
उसको पूरा सुमन मिल गया

अब तो सावन से दिन हो गये
फाग सी यामिनी हो गई ।


प्यार की राह में जो मिटे 
ऐसे जग में अनंत हो गये
प्यार जिनको न मन का मिला
वे ही ऋषि मुनि औ संत हो गये

प्यार बिन ज़िंदगी जो मिली
दर्द की रागिनी हो गई ।


4

पग पग पर हर पल 
मन को समझाना पड़ता है
अपनी शर्तों पर जीने का
मोल चुकाना पड़ता है ।

गाँधी और भगत सिंह दोनों
अमर हुये इतिहास में
अपने अपने तर्क थे
दोनों के अपने विश्वास में

किन पृष्ठों में नाम लिखाना
लक्ष्य बनाना पड़ता है ।

अनुबंधों वाले जीवन में
अपनी बात कहोगे क्या
पिंजर में यदि पंख रहें तो 
आसमान में उड़ोगे क्या

परबस होकर जिह्वा
तोताराम बनाना पड़ता है ।


5

चाँद से ज्यों छिन जाय चाँदनी
हो संगीत से दूर रागिनी
बादल से विलगे ज्यों दामिनी
टूटे हरेक कड़ी
तेरे बिन यूँ बीते हरेक घड़ी ।

वे भी दिन थे पतझर में तू
सावन बन आयी थी
इस नीरस जीवन में गंगा
बनकर लहरायी थी

अब तो आँखें चातक जैसी 
बारह मास गड़ी।


तुम बिन एक तरह लगता है
क्या फागुन क्या सावन
हर तस्वीर अधूरी  
जबसे टूटा मन का दर्पन

बनना था गलहार मेरा

किस मुँदरी में जड़ी ।







।।साक्षात्कार।। 
                                    
फिलहाल कला व्यवसाय के पीछे चल रही है - दिलीप शुक्ला

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अंदाज अपना अपना,मोहरा,घायल,दामिनी,जिद्दी,बिच्छू और दबंग जैसी सुपरहिट फिल्मों के  लेखक 
दिलीप शुक्ला ने प्रोड्यूसर डायरेक्टर के रूप में अपनी दूसरी पारी की शुरुआत की है।कारीगर बैनर के तले उनकी पहली फिल्म मैं उत्तरा नारायण पाठक शीघ्र ही फ्लोर पर जाने वाली है।पिछले दिनों उनसे अंधेरी स्थित उनके कार्यालय में मुलाकात  हुई।प्रस्तुत है उनसे बातचीत का एक संक्षिप्त अंश-


आप फिल्म लेखक के रूप में लगातार व्यस्त हैं, फिल्म निर्माण के क्षेत्र में उतरने की कोई खास वजह ?”

व्यस्तता तो आजीवन लगी ही रहेगी।बहुत दिनों से यह सोच रहा था कि अपने सब्जेक्ट को अपने मन मुताबिक बनाऊँ।सुबह से शाम तक हम कहानियां डिस्कस करते हैं लेकिन फिल्म बनते बनते लेखक के रूप में फिल्म पर हमारा पूरा नियंत्रण नहीं रह पाता।निर्माता बनकर उन अनुभवों से गुजरने की ख्वाहिश है।पूरा काम अपने बस में हो तो किस तरह के नतीजे आते हैं ,यह देखने जानने में दिलचस्पी है। मुझे विश्वास है कि यह फिल्म मेरी क्षमताओं को और खोलेगी।


हिंदी सिनेमा जगत में फिलहाल रीमेक की बाढ़ सी आ गई है।सिर्फ विदेशी ही नहीं भारतीय भाषाओं में बनी हिट फिल्मों का रीमेक भी धड़ल्ले से हो रहा है। मूल कहानियों से ज्यादे दिलचस्पी रीमेक में लेने की वजह ?”


रीमेक फिल्मों में प्रोड्यूसर खुद को सुरक्षित महसूस करता है।कहानी,लोकेसन,स्टार सब कुछ दिख रहा होता है।उसे बनाना आसान होता है,समय कम लगता है।नई कहानी में स्क्रीन प्ले डायलॉग के लिए पूरा समय चाहिए, साथ ही स्टार को कन्विंस करना पड़ता है ।ओरिजनल कहानी को जज करना भी मुश्किल होता है।हालांकि यह बात अलग है कि हिस्ट्री वही फिल्में क्रिएट करती हैं जो ओरिजनल कहानियों पर बनती हैं ।रीमेक फिल्मों ने कोई इतिहास रचा हो,ऐसा देखने में नहीं आया।


मूल कहानियों में भी अधिकतर कहानियां काल्पनिक होती हैं,उनका सच्चाई से कोई खास नाता नहीं होता ?”

फिल्म बनाते समय उसमें मनोरंजन के सारे रंग भरने की कोशिश होती है ताकि लोग उसे पसंद करें और फिल्म व्यवसायिक रूप से सफल हो।सत्य घटना का चुनाव करने पर हाथ बँध जाते हैं ,पूरी फ्रीडम नहीं रहती।इसलिए ऐसी फिल्में बहुत कम बन पाती हैं।आज का दौर पूरी तरह बदल चुका है।फिलहाल कला व्यवसाय के पीछे चल रही है।अगर पिछली कोई फिल्म गालियों की वजह से हिट हो गई है तो निर्माता चाहता है कि वह भी कुछ ऐसे सीन रखे जिनमें गालियां हों। कोई खास तरह का म्यूजिक चल जाता है तो उसी तरह का प्रयोग अगली फिल्म में भी होने लगता है।आज तो फिल्मों को प्रोमोट करने के लिए बाकायदा मार्केटिंग डिपार्टमेंट बनाया गया है जिसके मशवरे का असर फिल्म निर्माण पर पड़ना ही है।
 
एक जमाने में आर्ट सिनेमा का बड़ा शोर था, क्या वह दौर चला गया ?


व्यवसाय को पूरी तरह केंद्र में न रखकर किसी विषय के साथ पूरा न्याय किया जाय तो उसे आर्ट सिनेमा कहते हैं ।आज भी वैसी फिल्में बन तो रही हैं मगर बहुत कम लोगों की दिलचस्पी है उनमें।तमाम लोग तो इसी कोशिश में रहते हैं कि हमारी फिल्म 100 करोड़ के क्लब में शामिल हो।


फिल्म लेखकों को फिल्म इंडस्ट्री में आज भी वह दर्जा हासिल नहीं है जिसके वे हकदार हैं, वह चाहे एवार्ड फंक्शन हों या दूसरे जॉनर ?”


फिल्म चेहरों का माध्यम है।जो परदे पर दिखते हैं,उनकी अहमियत ज्यादे होती है।मीडिया के लोग लेखक का महत्व जानते हैं ,लेकिन मुहूर्त से लेकर प्रीमियर तक तमाम जगहों पर वे भी स्टार्स के ही आस पास होते हैं ।किसी कैमरामैन दूसरे टेक्नीशियन या लेखक का इंटरव्यू नहीं कर रहे होते हैं।सिनेमा स्टार की ही वजह से बड़ा बनता है,इसलिए दूसरे लोगों का पीछे हो जाना स्वाभाविक है।


आपकी लिखी अगली फिल्म कौन सी है?

शाद अली के निर्देशन में चाँद भाई आएगी।मुख्य भूमिका में अमिताभ बच्चन हों  अंदाज अपना अपना  और दबंग  का सीक्वल भी लिख रहा हूँ।



  




कहानी

मुंबई से बनारस


-रासबिहारी पाण्डेय






भविष्यनिधि कार्यालय वाराणसी में कार्यरत रंजीत का ट्रांसफर जब मुंबई के लिए हुआ तो उसकी खुशी का पारावार न रहा।उसने मन ही मन भगवान को धन्यवाद दिया कि अच्छा हुआ उसका ट्रांसफर चेन्नई, कोलकाता या किसी दूसरे शहर में नहीं हुआ वर्ना स्वप्ननगरी मुंबई आने की वर्षों की इच्छा कुछ सालों के लिए फिर दबी रह जाती।ऑफिस से छुट्टी लेकर कहीं जाना तो तीर्थ करने जैसा ही होता है,दो चार दिन घूमे फिर लौट आए।घर आकर जब उसने यह सूचना अपनी पत्नी और दोनों बच्चों को दी तो वे खुशी से चहक उठे।छोटे ने तुतलाकर कहा- पापा बंबई जाने पर शाहरुख और अमिताभ से मिलवाओगे न..! तो रंजीत को बच्चे के भोलेपन पर हँसी आ गई।

अगले दिन वह वाराणसी रेलवे रिजर्वेसन कक्ष में था। पूछताछ करने पर पता चला कि मुंबई से वाराणसी जाने वाली सभी गाड़ियाँ अगले एक महीने तक फुल हैं।वेटिंग टिकट लेकर रिजर्वेसन वाले डब्बे में जा सकते हैं,हो सकता है टीसी ट्रेन में कुछ ले देकर कोई सीट एलॉट कर दे... लेकिन ऐसा न होने पर परिवार के साथ उसे पूरे 26 घंटे का सफर नीचे बैठकर काटना होगा।सोचकर ही रूह कांप गई...कैसे हर रोज लाखों लोग रिजर्वेसन का पूरा पैसा देकर भी ट्रेन के डब्बों में फर्श पर बैठकर 24 से 50 घंटे तक की यात्रा करते हैं।नहीं ...उससे तो ऐसा नहीं होगा...ग्राहक की तलाश में वहाँ घूम रहे एक टिकट दलाल ने स्थिति भांप ली और पास आकर पूछा- कहाँ का टिकट चाहिए भाई साहब ?
बंबई का...
तो चिंता काहे करते हैं ....थोड़ा खरचा पानी करिए...ई तो अपना रोज का काम है....
कितना  टिकट चाहिए ....?
पति पत्नी और दो बच्चे ।
चार लोग हैं ... तो दो हजार एक्स्ट्रा दे दीजिए बाकी जो टिकट पर लिखा रहेगा सो.....
हर टिकट पर पाँच सौ...इससे तो अच्छा है मैं तत्काल सेवा में दो सौ एक्स्ट्रा देकर चला जाऊँगा... रंजीत ने अंधेरे में एक तीर मारा ,हालांकि उसे मालूम था कि तत्काल सेवा में भी कन्फर्म टिकट मिलना मुश्किल है ।
किस दुनिया में हैं भाई साहब....तत्काल सेवा की खिड़की खुलती है और पाँच मिनट में फुल...आप जैसे लोग लाइन में ही खड़े रह जाते हैं,टिकट मिल भी गया तो कन्फर्म नहीं होता....इस दो हजार में हम अकेले थोड़े हैं....तीन हिस्से लगेंगे महँगाई के इस जमाने में...... बहुत ज्यादे नहीं मिलेगा मुझको .......
रंजीत ने अब ज्यादा जिरह करना उचित नहीं समझा.... पैसे देते ही किसी चमत्कार की तरह
उसके पास दस मिनट के भीतर टिकट हाजिर था।

अपने ऑफिस के चतुर्वेदी जी ने मुंबई के एक मराठी मित्र से कहकर दस हजार रुपये में एक महीने के लिए बतौर पेइंग गेस्ट रहने की व्यव्स्था करा दी थी।दो कमरों का छोटा सा फ्लैट था।एक किचन के रूप में इस्तेमाल होता,एक बेडरूम के रूप में।रंजीत पत्नी और बच्चों के साथ किचन में सोता और वे पति पत्नी अपने बेडरूम में। बनारस में इतने खुले ढ़ंग से रहने के बाद यहां एक संकुचित दायरे में रहने में बहुत अटपटा लगता लेकिन मुंबई के ग्लैमर और अपने नये आशियाने के बारे में सोचकर संतोष होता ...चलो एक महीने निकल जाएंगे किसी तरह... मुंबा देवी ,महालक्ष्मी मंदिर,सिद्धिविनायक,हरे कृष्ण मंदिर,हैंगिंग गार्डेन,जुहू चौपाटी जैसी मशहूर जगहों पर घूमकर पत्नी और बच्चे फूले न समाते थे।उन्हें हाजी अली और अक्सा बीच पर शूटिंग देखने का भी मौका मिला...एक ही सीन के कई रीटेक और फिर अगले सीन की तैयारी के लिए लगनेवाले वक्त से वे थोड़े बोर जरूर हुए लेकिन फिर उसे इस व्यवसाय का हिस्सा मानकर भूल गए।  

ऑफिस के सहकर्मियों से उसने मकान दिलाने की बात की तो वे बोले- यार किसी इस्टेट एजेंट को पकड़ो,उसे ब्रोकरेज दो ,मकान दिला देगा। छोटे शहरों की तरह बिना ब्रोकरेज और एग्रीमेंट के मकान नहीं मिलते यहाँ।वह इस्टेट एजेंट के पास पहुँचा तो पता चला कि बांद्रा और दादर जैसे इलाके में जहाँ से उसका ऑफिस नजदीक है,फ्लैट का किराया कम से कम 35-40,000 है।जिपॉजिट मनी तीन चार लाख जो उसके बजट के बाहर है।एजेंट ने समझाया –आप मीरा रोड या भायंदर में कोशिश करिए,वहाँ 7-8 हजार में फ्लैट मिल जाएगा।जब वह मीरा रोड के एजेंट के पास पहुँचा तो एजेंट ने बताया कि -80,000 डिपॉजिट और 8 हजार भाड़े फ्लैट मिल जाएगा।एग्रीमेंट का दो हजार और दो महीने का भाड़ा सोलह हजार ब्रोकरेज अलग से देना होगा ।
रंजीत रुआंसा हो गया ।तत्काल लगभग एक लाख की ब्यवस्था कर पाना मुश्किल था।उसने एजेंट से पूछा –भाई साब हमारा बजट इतना नहीं है।4-5 हजार भाड़े और 35-40हजार डिपाजिट वाला कोई कमरा नहीं दिला सकते ...?
इस बजट में तो चाल में ही मिल पाएगा.....
वहां कोई कठिनाई ..
कठिनाई ट्वायलेट की होती है...लेकिन आप जैसे और भी लाखों लोग जिनका फ्लैट का बजट नहीं होता,चालों में ही रहते हैं।ये कार्ड लीजिए और फोन कीजिए .....मेरा दोस्त है उस इलाके में प्रापर्टी का काम देखता है।कांदिवली या दहीसर के किसी चाल में खोली दिला देगा....
रंजीत चौंका ...खोली मतलब.....?
एजेंट हंसा- यहां चाल के कमरे को खोली बोलते हैं ।
अच्छा यह बात है...अच्छा हुआ आपने बता दिया...मैं याद कर लेता हूं ।

महीना बीतते बीतते रंजीत को चार हजार भाड़े और चालीस हजार डिपॉजिट पर दहीसर के  चाल में एक खोली मिल गई।उसने चैन की सांस ली।चाल का परिवेश उसके संस्कारों से बिल्कुल मेल नहीं खाता था।यहां ज्यादेतर लोगों का जीवन शारीरिक श्रम से जुड़ा था।कोई रिक्शा चलानेवाला था तो कोई सब्जी बेचनेवाला,कोई ठेला लगानेवाला था तो कोई फेरी लगानेवाला।दिहाड़ी पर मजदूरी करनेवालों की भी अच्छी खासी संख्या थी।ऐसे में रंजीत का असली दोस्त उसका टेलीविजन सेट ही था जिसके जरिए वह अपना मन बहलाया करता था।हालांकि सोमवार से शुक्रवार तक ऑफिस आने जाने के क्रम में तीन घंटे तो ट्रेन और बस में ही निकल जाया करते थे।आठ घंटे ऑफिस में देने के बाद, बाकी जो समय बचता उसमें अखबार पढ़ना,थोड़ा बहुत न्यूज देखना और घर के दूसरे काम निपटाने की जिम्मेवारी होती।
शनिवार,रविवार या छुट्टी के दिन में ही थोड़ा चैन मिलता।
चाल में रहते हुए सबसे बड़ी परेशानी थी शौचालय जाने की....सुबह चार साढ़े चार बजे तक उठ गए तो ठीक वर्ना बाद में इतनी लंबी लाइन लगती कि दिमाग खराब हो जाता।दस शौचालयों में हर एक के आगे 10-12 डब्बे लाइन से लग जाते,भीतर गए अभी पांच मिनट गुजरा नहीं कि दूसरे दरवाजा खटखटाना शुरू कर देते- जल्दी कर भाई दुबारा आ जाना। कोई कोई शरारत भी करता- भीतर जाके सो तो नहीं गए यार....जल्दी कर काम पर जाने का है।एक और बड़ी परेशानी थी- सार्वजनिक नल से पानी लेने की।लाइन लगाकर देर तक इंतजार करने के बवजूद जरूरत के मुताबिक पूरा पानी नहीं मिल पाता था।लोकल लोगों की दबंगई का शिकार होना पड़ता और अक्सर भैया होने और मुंबई में भीड़ बढ़ाने के जुमलों से भी दो चार होना पड़ता। ....पर मरता क्या न करता,आर्थिक अभाव में सब कुछ जहर के घूँट की तरह पीना पड़ता।

चाल में रहनेवाले बच्चों से लेकर बूढ़ों तक का बोलचाल कुछ अजीब किस्म का था, जिसे आमतौर पर बंबइया भाषा कहा जाता है- मराठी और हिंदी का मिला जुला विकृत रूप।पड़ोसियों से सीखकर कुछ जुमले घर में बच्चे भी बोलने लगे थे- मेरे को तेरे को ,आने का जाने का।यह भाषा हिंदी फिल्मों में उसे जितनी अच्छी लगती थी,व्यवहारिक जीवन में उतनी ही चुभनेवाली थी।
उसने ऑफिस में अपने एक सहकर्मी से अपना दर्द बयान किया तो उसने सुझाव दिया कि कुछ लोग अपने नाम से एलॉट हुए सरकारी फ्लैट कम भाड़े पर दूसरों को देते हैं,अगर वह चाहे तो ऐसा कोई फ्लैट ढ़ूँढ़ने में वह उसकी मदद कर सकता है।जाँचदल वालों की पकड़ में आने पर मकान मालिक के रिश्तेदार के रूप में परिचय देना होगा.....भरसक पकड़ में न आने का प्रयास करना होगा।रंजीत को मित्र का यह सुझाव पसंद आया। दो महीने की पड़ताल के बाद उसे एक ऐसा फ्लैट मिल गया।अंटाप हिल इलाके में आयकर विभाग में काम करनेवाले एक सज्जन ने अपने नाम से एलॉट फ्लैट भाड़े पर उसे दे दिया।मुंबई में पहली बार टायलेट बाथरूम वाले फ्लैट में आकर उसे बेइंतहा खुशी हो रही थी। पत्नी और बच्चे भी खुश थे लेकिन उनकी खुशी स्थायी रूप से टिकी नहीं रह सकी।अक्सर छापेमारी वाला दल चक्कर लगाने आ जाता। सरकारी फ्लैट में अवैध रुप से रहने का भय बराबर बना रहता।वह कभी निश्चिंत नहीं रह पाता था।इस दल के आने की खबर लगते ही पत्नी,बच्चों को खिड़की और लाइट बंद करने को कहकर फ्लैट में बाहर से ताला लगाकर कहीं बाहर निकल जाता।हर बार घर में ताला लगा देखकर जांचदल वालों का शक पुख्ता हो गया...जरूर कोई बाहरी आदमी रह रहा है।उन्होंने अगल बगल वालों से पूछताछ की तो उन्होंने बता दिया कि इस फ्लैट में कोई भाड़े से रह रहा है।फिर क्या था जांच दल वाले एक दिन देर रात को आ धमके।रंजीत ने अपना परिचय उन्हें संबंधित व्यक्ति के रिश्तेदार के रूप में दिया और बताया कि फिलहाल वे गाँव गए हैं।विभाग ने कर्मचारी को तलब किया।कर्मचारी ने सफाई देते हुए कहा कि रंजीत उसके मौसेरे भाई का लड़का है...हाल ही में उसके मकान का एग्रीमेंट खत्म हुआ था और मुझे थोड़े दिन के लिए गाँव जाना था,इसलिए फ्लैट में रख लिया।सोचा था तब तक वह अपने लिए नया घर भी ढ़ूँढ़ लेगा और मेरे फ्लैट की निगरानी भी हो जाएगी।आपलोग तो जानते हैं कि मुंबई के बंद मकानों में चोरियां कितनी बढ़ गई हैं।अब इसके लिए मुझे जो सजा दी जाय,... मंजूर है।

55वर्षीय व्यक्ति की इस फरियाद पर दया बरतते हुए जांच दल ने मामूली जुर्माना लगाकर आगे से ऐसा न करने की हिदायत के साथ छोड़ दिया।अब रंजीत के सामने एक बार पुनः घर की समस्या खड़ी हो गई।वह चाल के नारकीय जीवन में फिर से नहीं लौटना चाहता था और प्राइवेट फ्लैट का किराया दे पाना उसकी औकात से बाहर था।ऐसे में उसने पुनः उसी सहकर्मी के पास जाकर अपनी समस्या रखी।सहकर्मी ने सुझाया कि वह विरार चला जाए,वहाँ उसे कम किराये में फ्लैट मिल जाएगा।आने जाने में थोड़ी तकलीफ तो होगी लेकिन समस्या का निदान हो जाएगा।रंजीत ने तनिक विस्मय से पूछा- वही गोविंदा वाला विरार....
हां भाई हाँ ,वहीं रहकर गोविंदा ने अपना फिल्मी स्ट्रगल शुरू किया था,कामयाब हो जाने के बाद जुहू रहने लगा लेकिन जब लोकसभा का चुनाव लड़ना हुआ तो फिर उसने उसी क्षेत्र का चुनाव किया।दूरी और लोकल ट्रेन की भीड़ को यादकर उसके तन बदन में कँपकँपी सी होने लगी मगर कोई दूसरा चारा न देखकर  उसने विरार रहने का मन बना लिया।एक एजेंट ने पचास हजार रुपए डिपॉजिट और पाँच हजार भाड़े पर विरार में फ्लैट दिला दिया।एग्रीमेंट 11 महीने के लिए था।11 महीना खत्म होने के बाद उसी एजेंट ने दुबारा अपनी फीस लेकर दूसरा फ्लैट दिला दिया,फिर तीसरा फिर चौथा....मगर किसी मकान में व लगातार दो टर्म नहीं रह पाया।इसके पीछे एजेटों की मोनोपोली थी...किरायेदार और मकान मालिक दोनों से दलाली लेना और हर बार किराया कुछ बढ़ा देना उनकी पॉलिसी थी ताकि उन्हें मिलने वाले पैसे पहले से कुछ ज्यादे हों...रंजीत ने खुद बहुत कोशिश की कि बिना दलाली दिए कोई फ्लैट मिल जाए,मगर इस कोशिश में उसे कामयाबी नहीं मिली।किराये पर फ्लैट देनेवाले अधिकांश मकान मालिक शहर के दूसरे हिस्सों में रहते थे।फ्लैट लेकर उन्होने एक तरह का इन्वेस्टमेंट किया था।अगर कोई अगल बगल का हुआ तो भी इस बात से डरता कि किरायेदार ने मकान में आने के बाद समय पर खाली करने में आनाकानी की तो कोर्ट कचहरी के लफड़े में कौन पड़ेगा।इस्टेट एजेंट तो पुलिसवालों और गुंडों.... दोनों से मिले होते हैं,अतःचिंता की कोई बात नहीं होती।इसलिए कौन खुद से किरायेदार को डील करे,एजेंटों को ही सौंप दो,अपने को पैसे से काम है- सो मिलेगा ही...एक दो महीने का कमीशन लेते हैं तो लेने दो,लफड़े से तो बचे रहेंगे।


किराये के मकानों में मकान मालिक जब तब आकर पचीस तरह की हिदायतें दे जाते थे,मसलन दरवाजा खिड़कियां सम्हालकर खोलें बंद करें,प्लास्टर न उखड़ने पाए।मकान में कहीं कोई कील नहीं गड़नी चाहिए।बच्चे दीवालों पर कहीं कुछ लिखें नहीं,नलों को ठीक से इस्तेमाल करें..वगैरह वगैरह।कभी ऐसा भी हुआ कि कोई मकान 6-7 महीने में ही खाली करना पड़ जाता क्योंकि मकान मालिक की अपनी जरूरत होती।किसी के घर में शादी पड़ गई तो किसी ने मकान ही बेच दिया,ऐसे में परेशानी उसे ही उठानी पड़ती।विरोध इसलिए नहीं किया जा सकता था कि एग्रीमेंट पेपर में यह शर्त लगी होती कि मकान  मालिक को जरूरत हुई तो एक महीने पहले नोटिस देकर मकान खाली कराया जा सकता है।

इन सारी समस्याओं से मुक्त होने के लिए उसने बैंक से लोन कराकर अपना फ्लैट खरीदने का निर्णय किया।उसने विरार में आसपास चल रहे कई बिल्डरों के प्रोजेक्ट देखे।एरिया और प्रोजेक्ट के अनुसार 4 से 6 हजार स्क्वायर फुट का भाव चल रहा था।उसने हिसाब लगाया कि 500 एरिया का फ्लैट बीस लाख में आ जाएगा।बिल्डर ने कहा कि दो लाख टोकन मनी दे दें,बाकी पैसे प्रोजेक्ट पूरा होने तक कुछ लोन  ......कुछ कैश दे देंगे तो पजेसन मिल जाएगा।

प्रोजेक्ट पूरा होने तक रंजीत बिल्डर को तीन लाख रुपये कैश दे चुका था,बाकी बैंक से लोन हो गया था लेकिन अचानक बिल्डर ने पैंतरा बदल लिया और कहा कि फिलहाल हम सारे फ्लैट्स 6 हजार के रेट में बेच रहा है क्योंकि नया बजट आने  के बाद रेत,सीमेंट,ईंट,छड़ सबका दाम बढ़ गया है,अभी हम उसमें दो लिफ्ट भी लगा रहे हैं...चार लाख रुपये और देने होंगे।अगर वह दस दिनों के भीतर रुपयों की ब्यवस्था कर सके तो ठीक वर्ना यह फ्लैट किसी दूसरे को बेच दिया जाएगा।रंजीत सकते में आ गया... क्योंकि बिल्डर ने कोई कानूनी एग्रीमेंट तो किया नहीं था...पैसे की रसीद जरूर थी मगर कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए वह नाकाफी थी।मरता क्या न करता,उसने पिछले 10 सालों से चली आ रही एल आइ सी का प्रीमैच्योर पेमेंट लिया,बच्चों के नाम बचत योजनाओं में डाले हुए पैसे निकाले ,कुछ दोस्तों रिश्तेदारों से कर्ज लिया... तब कहीं जाके बाकी के चार लाख और अदा कर पाया।लेकिन समस्या यहीं खत्म नहीं हुई,फ्लैट में आने के बाद बिल्डर ने पचास हजार का बिल और थमा दिया।पूछने पर बताया गया कि सोसायटी और बिजली कनेक्सन के नाम पर हर फ्लैट ओनर से इतने पैसे लिए जाते हैं....उसे काटो तो खून नहीं।पचास हजार और कहाँ से लाए ? जहाँ से जितना हो सकता था,पहले ही खँगाल चुका था। दूसरा कोई उपाय न देखकर बिल्डर के ऑफिस में जाकर वह हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाया- मुझे दो तीन महीने का टाइम दीजिए,इस पैसे पर चाहें तो ब्याज भी जोड़ लीजिए,फ्लैट के कागजात भी अपने पास रखिए,मैं ये पैसे भी चुका दूँगा...लेकिन तत्काल मेरे पास फूटी कौड़ी नहीं है....पुराने पैसे चुकाने में ही बहुत सारा कर्ज हो गया है।बिल्डर फ्लैट के कागजात जमानत के रूप में रखने पर चुप हो गया।बोला-ठीक है जितना जल्दी हो सके दे दीजिएगा,वर्ना ब्याज के पैसे बढ़ते जाएंगे।

थोड़े समय बाद उसे यह पता चला कि जिस फ्लैट में वह रह रहा है प्रति महीने उसका तीन हजार रुपये मेंटेंनेंस भी देना है।बिजली का बिल बारह तेरह सौ आता ही है।फ्लैट खरीदने के बाद भी चैन नहीं ...तीन बच्चों के स्कूल,ट्यूसन,किताब-कॉपी,ड्रेस से लेकर किचन और दोस्त मित्र,नाते रिश्तेदारी तक..... सब इसी तीस हजार के मासिक वेतन में करना है।दिन ब दिन महंगाई बढ़ती जा रही है।बच्चों के हायर एजुकेसन,शादी ब्याह के लिए भी कुछ बचत करना जरूरी है। इस मकान में तो उसकी बाकी उम्र लोन की किस्त अदा करने में ही गुजर जाएगी।गांव की जिम्मेवारियों
 से मुँह बिल्कुल मोड़ लेना पड़ेगा।सपनों के जिस शहर में आने के लिए वह बेताब था,वहाँ की व्यवहारिक कठिनाइयों से जूझते जूझते उसका मन कसैला हो गया था।अब उसे अपना शहर बनारस बेसाख्ता याद आने लगा था।क्या ही अच्छा हो अगर फिर से बनारस ट्रांसफर हो जाय....न मकान का टेंसन न ट्रेन की खिचखिच,साइकिल से पंद्रह मिनट में दफ्तर में हाजिर।अगले ही दिन वह अपने एक मित्र के साथ एक प्रभावशाली नेता के दरबार में था।उसका मित्र नेता जी से गुजारिश कर रहा था- सर! इन दिनों आपके पार्टी की सरकार है।आपके एक फोन पर इनका ट्रांसफर हो जाएगा।प्लीज सर! देखिये गरीब का भला हो जाएगा।





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