Friday, 15 March 2024

क्या लेखक को मॉडल बनना चाहिए?


रासबिहारी पाण्डेय ।


विज्ञापन कंपनियां पूंजीवादी व्यवस्था का अविभाज्य अंग हैं।अपने उत्पाद बेचने के लिए वे समाज में स्थापित और चर्चित चेहरों का इस्तेमाल करती हैं। सबसे अधिक विज्ञापन फिल्म कलाकार और क्रिकेटर करते हैं।ये सितारे जितने पैसे अपने मूल काम के लिए लेते हैं,उससे कई गुना अधिक १०-२० सेकंड के विज्ञापन के लिए लेते हैं। उत्पाद बेचने के लिए कंपनियां इन्हें अपना ब्रांड घोषित करती हैं ।पैसों के एवज में ये शख्सियतें वह सब कुछ बोलती हैं जो कंपनियां उनसे चाहती हैं। हर कंपनी के बस की बात नहीं कि वह किसी बड़े सितारे से अपने ब्रांड का विज्ञापन करा सके। दूसरी तीसरी श्रेणी की कंपनियां पैसे लेने के हिसाब से दूसरी तीसरी श्रेणी के सितारों को ढूंढ़ती हैं। जो कंपनियां सितारों का खर्च वहन नहीं कर सकतीं, वे साधारण मॉडलों से ही काम चला लेती हैं।अभिनेताओं के अतिरिक्त गीतकार जावेद अख्तर और वरुण ग्रोवर,गजल गायक जगजीत सिंह, निर्देशक अनुराग कश्यप आदि भी टीवी पर कुछ विज्ञापन कर चुके हैं। हाल ही में गजलगो आलोक श्रीवास्तव ने एक फर्नीचर का विज्ञापन किया है। लेखक और ब्लॉगर अशोक कुमार पांडेय ने अपने फेसबुक पोस्ट में एक बातचीत का स्क्रीनशॉट लगाते हुए लिखा है कि बेटिंग कंपनी द्वारा उन्हें एक  विज्ञापन के लिए ₹९०,०००का प्रस्ताव था जो उनके जैसे व्यक्ति के लिए कम नहीं है, मगर बात उसूलों की है, ९० करोड़ भी मिलें तो मैं इस तरह का समझौता नहीं करूंगा।ऐसी प्रतिबद्धता कोई लेखक ही दिखा सकता है। आज तमाम कलाकार सट्टे वाले ऐप, शराब,गुटका और पान मसाले का प्रचार करने में लगे हुए हैं। जब पैसे लेकर कवि, लेखक और पत्रकार भी कंपनियों के हित में झूठे दावों वाले विज्ञापन करने लगेगें तो वह समय हमारे समाज के लिए सबसे बुरा समय होगा। जीवन सिर्फ पाने का नाम नहीं है,आत्मा की आवाज सुन कर ठुकराने का भी नाम है। यह बात लेखक से बेहतर कौन समझ सकता है? पैसे के लिए जो लोग अपना ईमान गिरवी रख सकते हैं,वे हमारे प्रेरणास्रोत कैसे हो सकते हैं? 

स्वयं को बाजार के हवाले करने के सिर्फ फायदे ही नहीं नुकसान भी बहुत हैं।कई कवि/ लेखक सार्वजनिक रूप से यह कहने में फख्र महसूस करते हैं कि हम इतने पैसे लेते हैं... हम इतने देशों की यात्रा कर चुके हैं। इस तरह के बयान लेखकीय गरिमा के विरुद्ध हैं।हम किसी कवि / लेखक को इसलिए पढ़ते या सुनते नहीं हैं कि वह कितना महंगा या सस्ता है। हम उसके लेखन से प्रभावित होते हैं, इसलिए उसे पढ़ते हैं या उसका सम्मान करते हैं। पंत, प्रसाद, निराला, प्रेमचंद और शरतचंद्र कितने अमीर थे, इससे उनका स्तर तय नहीं हुआ। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि कुछ लेखकों की ज़रूरतें लेखन से पूरी नहीं हो पातीं, इसलिए पैसा कमाने के लिहाज से थोड़ा बाजारू होकर समझौता कर लेने में बुराई नहीं है। लुगदी साहित्य, घटिया फ़िल्में और उनके चालू गीत ऐसे ही लेखकों द्वारा लिखे जाते हैं जो समाज का बेड़ा गर्क  करने में अहम भूमिका निभाते हैं। आजीविका के लिए दूसरे काम करने चाहिए,लिखते समय लेखक को पूरी ईमानदारी बरतनी चाहिए । लेखन एक साधन है, इसे व्यवसाय बनाने के लिए किसी भी तरह का समझौता करना वाग्देवी का अपमान है।लेखन से बनी हुई अपनी छवि को पैसों के एवज में दूसरों के हित  साधन में लगाना अक्षम्य अपराध है।कबीर और रविदास को जुलाहा और मोची होने की वजह से कभी दोयम दर्जा नहीं दिया गया। तुलसी ने अकबर के दरबार का नवरत्न होना स्वीकार नहीं किया। अपनी चेतना को गिरवी रखकर लेखकीय  प्रतिबद्धता नहीं निभाई जा सकती।

कब रुकेगी सोशल मीडिया में देह की नुमायश

 

रासबिहारी पाण्डेय


अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के बरक्स स्त्री जीवन की पड़ताल आवश्यक है। 

ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसमें स्त्रियां आज पीछे रह गई हों।अंतरिक्ष विज्ञान, जल, थल और वायु सेना, प्रशासनिक सेवाएँ,साहित्य,संगीत ,कला और पत्रकारिता के साथ-साथ राजनीति के क्षेत्र में भी महिलाओं का भरपूर दखल है।

हर वर्ष घोषित होने वाले बड़े पुरस्कारों में महिलाओं की अच्छी खासी संख्या है। दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार माने जाने वाले नोबेल और बुकर पुरस्कार के अतिरिक्त साहित्य,खेल, पत्रकारिता समेत अन्य पुरस्कार जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हैं और जिनमें कभी पुरुषों का ही वर्चस्व माना जाता था, हाल के दशकों में स्त्रियों को मिल चुके हैं।स्त्रियों को हर प्रकार का मंच और अभिव्यक्ति की आजादी हासिल है। पंचायती व्यवस्था कायम होने के बाद इन्हें ग्रामीण स्तर पर भी आगे आने का पर्याप्त अवसर मिल रहा है।कुछ समय पहले तक ग्रामीण अंचलों में पत्नी का नौकरी करना अच्छा नहीं माना जाता था किंतु आज अनेक परिवार ऐसे हैं जिनमें पत्नी ही नौकरी कर रही है और पति घर परिवार की देखभाल कर रहा है। पत्नी को कार्य स्थल तक छोड़ने जाना और फिर लेकर आना अब कोई शर्म की बात नहीं रह गई है। 

स्त्री की सामाजिक स्थिति और सामाजिक उत्थान का दायरा बहुत बढ़ा है।अनेक स्त्रियां घर और नौकरी दोनों को संभालते हुए बहुत मजबूती से जीवन की लड़ाई लड़ रही हैं। वे आत्मनिर्भर हैं और अपने जीवन का निर्णय स्वयं लेने में सक्षम हैं।टेलीविजन, सिनेमा,ओटीटी प्लेटफॉर्म और सोशल साइट्स पर  स्त्रियां न सिर्फ मजबूत भूमिका में हैं बल्कि यहां इनका अश्लीलतम  रूप भी दृष्टिगत हो रहा है जो अत्यंत आपत्तिजनक है।साहिर लुधियानवी ने कभी लिखा था- औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया....आज स्थिति काफी बदल चुकी है।स्त्री ने शोहरत और दौलत की हवस में खुद ही खुद को बाजार के हवाले कर दिया है। फेसबुक इंस्टाग्राम यूट्यूब और व्हाट्सएप के जरिए हर उम्र की महिलाएं दिन रात देह की नुमाइश में लगी हैं। सेंसर बोर्ड ने भी पर्याप्त छूट दे रखी है। अक्सर ऐसी फिल्में देखने को मिलती हैं जिन्हें देखने के बाद ऐसा नहीं लगता कि फिल्मों के लिए सेंसर जैसी कोई व्यवस्था भी है। ओटीटी चैनल और गूगल को नियंत्रण में रखने के लिए लंबी कवायद है किंतु जो सिनेमा सेंसर बोर्ड द्वारा प्रमाणित होकर ७० एम एम के पर्दे पर दिखाया जाता है, वहां मनोरंजन के नाम पर स्त्री देह की भरपूर नुमायश की खुली छूट है।कुछ बरस पहले तक फेसबुक पर अश्लील वीडियो देखने को नहीं मिलते थे, किंतु लॉकडाउन के समय पोर्नोग्राफी का बाजार जिस तरह गर्म हुआ उसकी चपेट में फेसबुक भी आ गया। फेसबुक ने अपने व्यापार को बढ़ावा देने के लिए ऐसे वीडियोज को अनुमति दे दी। यूट्यूब से बड़ी कमाई का जरिया अब फेसबुक बन चुका है इसलिए असंख्य लोग इस व्यापार में कूद पड़े।आज लगभग हर व्यक्ति के हाथ में स्मार्टफोन है और उसमें आवश्यक रूप से गूगल, फेसबुक,ह्वाट्सअप, इंस्टाग्राम आदि है।न  चाहते हुए भी हमारी आंखों के सामने ये अश्लील वीडियो गुजरते हैं। इन्हें बनाने वाले और इनमें काम करने वाले हमारे आस पास के ही लोग हैं।हर वीडियो का एक ही उद्देश्य है- कामुक कथानक के साथ स्त्री देह की नुमायश।ऐसे वीडियो सिर्फ कॉर्पोरेट द्वारा ही नहीं बनाये जा रहे हैं,गांव कस्बों में बैठी हर उम्र की स्त्रियां इसमें लिप्त हैं। दुखद यह है कि अधिकांश को अपने माँ बाप और पतियों का संरक्षण भी प्राप्त है।

इस अश्लीलता से निजात पाना मुश्किल तो है मगर असंभव नहीं।हमअपने स्तर पर इसके खिलाफ मुहिम तो छेड़ ही सकते हैं। 

लोगों ने मुझे मेरी आवाज से पहचाना

 

रासबिहारी पाण्डेय


गत बुधवार को अमीन सायानी नहीं रहे।'आवाज की दुनिया के बेताज बादशाह ' का संबोधन बहुतों के सम्मान में हुआ करता है, मगर अमीन सायानी इस संबोधन के लिए सर्वथा उपयुक्त थे।बिनाका गीतमाला प्रस्तुत करते हुए जो अपार लोकप्रियता उन्हें मिली, उसे कोई पार नहीं कर सका। सीधी सरल हिंदी वाले अपने खास लहजे में बात करने वाले अमीन सायानी सुदूर ग्रामीण अंचलों तक में लोकप्रिय थे।टीवी,सिनेमा के अलावा विज्ञापन फिल्मों में भी उनकी आवाज का भरपूर इस्तेमाल हुआ।आज भी डबिंग कलाकार या कॉमेडियन उनकी नकल करते हुए पाए जाते हैं। मैंने सन् २००१ में एक समाचार पत्र के लिए उनसे लंबी बातचीत की थी।

तब वे ग्रांट रोड में केम्स कॉर्नर के पास रहा करते थे। जब मैंने उनसे पूछा कि आज की  फिल्मों के संगीत का स्तर गिरता जा रहा है तो उनका कहना था कि हमारे जमाने में यानी सन् 40 से 75 तक का एक ऐसा दौर रहा कि  एक से एक प्रतिभाएं आईं और इतना अनूठा काम किया जिसकी मिसाल आज भी दी जाती है, लेकिन धीरे-धीरे फिल्मों की मधुरता की जगह धूम धड़ाका मारपीट एवं अंग प्रदर्शन हावी होने लगा।माध्यम की ज़रूरतें बदलने लगीं। आज की पीढ़ी एक जोशीला लय चाहती है,उसे फास्ट पॉप म्यूजिक रिदम चाहिए....तो यह कहना कि पहले का संगीत अच्छा था,अब कुछ अच्छा नहीं रहा,हर दृष्टि से ठीक नहीं होगा।


जब मैंने उनसे प्रति प्रश्न किया कि क्या एक खास वर्ग की अभिरुचि को ही कला का मापदंड मान लेना उचित होगा तो उन्होंने थोड़ा ठहर कर कहा कि अगर हमने गणतंत्र अपनाया है, डेमोक्रेसी के नियमों में बह चुके हैं तो जो ज्यादा लोग अच्छा और सही समझते हैं उन लोगों के लिए तो वह अच्छा हो ही जाता है। कई बहुत अच्छी और कलात्मक फिल्में आती हैं,पर उसे दर्शक नहीं मिलते। सिनेमा देखने वाला वर्ग केवल बुद्धिजीवियों का नहीं,  ऐसे में फिल्मकार कॉमन चीजें देना चाहते हैं जिससे उनका व्यावसायिक लाभ भी हो और लोगों का मनोरंजन भी हो जाय।जो हमें जीवन से नहीं मिलता, हम मनोरंजन से पाना चाहते हैं। दुनिया भर में मास्टरपीस मानी जाने वाली पाथेर पांचाली अगर आम तबके को दिखाई जाए तो उसे बोरियत होगी। जिसमें सोचने समझने और उलझन की जगह न हो,दर्शकों का झुकाव उधर ही होता है। फिल्मों में सेक्स के मुद्दे पर भी उन्होंने खुलकर बातचीत की। उनका मानना था कि सेक्स विज्ञान को लेकर अच्छी फिल्म बनाने वाले निर्माताओं की बेहद कमी है। 

उनकी सोच से सहमत हुआ जा सकता है।शरीर विज्ञान से हम बिल्कुल मुंह मोड़ लें,यह ठीक नहीं है। शायद इसी का परिणाम है कि एड्स के मामले में भारत दुनिया भर में नंबर दो पर है। हम अपने बारे में तो सोचते हैं लेकिन देश और समाज के बारे में सोचना भूल जाते हैं। अगर व्यापक सोच लेकर सकारात्मक दृष्टि से स्त्री पुरुष संबंधों  की व्याख्या सिनेमा के परदे पर आए तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए।

ओ माई गॉड२ में पंकज त्रिपाठी ने उसकी अच्छी नजीर पेश की है।