गंगोत्री और केदारनाथ की यात्रा
-रासबिहारी पाण्डेय
बहुत दिनों से उत्तराखंड भ्रमण की इच्छा थी।वैसे तो उत्तराखंड को देवभूमि कहा गया है।यहाँ बहुतेरे तीर्थस्थल और ऐतिहासिक महत्त्व के दर्शनीय स्थल हैं लेकिन उन सबमें यमुनोत्री,गंगोत्री, केदारनाथ और बदरीनाथ प्रमुख हैं।अक्सर ये यात्राएं लोग समूह में करते हैं,बसों से या छोटी गाड़ियाँ रिजर्व करके।ये बस और छोटी गाड़ियों वाले ड्राइवर यात्रियों को एक निश्चित समय देते हैं जिसके भीतर यात्रियों को लौटकर एक निश्चित स्थान पर आना होता है।मेरे एक मित्र ने बताया कि निश्चित समय होने की वजह से कभी कभी कई लोग बिना दर्शन लाभ लिए बीच रास्ते से ही लौटकर उक्त स्थान पर चले आते हैं ताकि अगली यात्रा के लिए प्रस्थान कर सकें।इन यात्राओं में केदारनाथ धाम की यात्रा जरा मुश्किल है,संभवतः यहीं के लिए समय कम पड़ता होगा।समूह में यात्रा करने में सैलानीपन का भाव बाधित होता है,इसलिए मैंने निर्णय किया कि मैं अकेले इस यात्रा पर निकलूँगा।मैंने आठ दिन का समय निश्चित किया कि जितना संभव हुआ,घूमकर लौटूँगा।मैंने 6 जून की रात एक बजे मुंबई के उपनगर वसई से गुजरनेवाली गाड़ी संख्या 19019देहरादून एक्सप्रेस का रिजर्वेसन करा लिया।अंग्रेजी तारीख के अनुसार7 जून को चलकर 8 जून को शाम 4 बजे हरिद्वार पहुँचा।यहाँ से मुझे जगजीतपुर स्थित गंगा बचाओ अभियान के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले संत स्वामी शिवानंद जी के आश्रम मातृसदन में पहुँचना था।गंगोत्री से गंगा सागर तक की यात्रा करनेवाले कवि निलय उपाध्याय यहाँ काफी समय रह चुके हैं,उनके ही निर्देशानुसार मैं यहाँ जा रहा था।हरिद्वार रेलवे स्टेशन से शंकर आश्रम और फिर वहाँ से जगजीतपुर के लिए तीन पहिए वाले वाहन चलते रहते हैं।जगजीतपुर बस अड्डे के पास उतरकर थोड़ा पैदल चलकर यहाँ पहुँचना हुआ।आश्रम के बगल से गंगा की निर्मल धारा बह रही थीं।बड़ा ही मनोहारी वातावरण था।मातृसदन पहुँचकर मैं स्वामी शिवानंद जी के शिष्य स्वामी पूर्णानंद जी से मिला।थोड़ी देर बाद स्वामी शिवानंद जी से भी मुलाकात हुई।मैंने उन्हें अपने द्वारा किया भगवद्गीता का दोहानुवाद भेंट किया।वे काफी प्रसन्न हुए।कई एकड़ में फैले मातृ सदन में सैकड़ो पेड़ लगे हैं।आम,नासपाती,कटहल,लीची,नींबू.....देखते जाइए और पेड़ों की शीतल छाँव का आनंद लेते जाइए...... आश्रम का वातावरण अद्भुत लगा।
गंगा जी के शीतल जल में स्नान करके यात्रा से संतप्त शरीर को बहुत
राहत मिली।शाम को हर की पौड़ी के लिए निकला।दक्ष आश्रम से थोड़ा आगे बढ़ा ही था कि
रास्ते में टी.एन.दुबे जी से मुलाकात हो
गई।दुबे जी मुंबई में नैसर्गिक विकलांग सेवा संघ नाम की एक संस्था चलाते हैं।वे
कुछ विकलांग मित्रों को लेकर बद्रीनाथ के दर्शन के लिए निकले थे।अप्रत्याशित रूप
से उनसे मिलकर बड़ा आनंद आया।उनके साथ देर तक बातें होती रहीं,फिर चाट और चाय का आनंद
उठाया गया।मुझे याद आया कि हर की पौड़ी पर गंगा आरती में शामिल होना है,इसलिए उनसे
आज्ञा लेकर हर की पौड़ी के लिए प्रस्थान किया लेकिन वहाँ पहुँचने तक आरती का समय
निकल चुका था।संभवतःसात बजे दस मिनट के लिए आरती का आयोजन होता है।वैसे मैं
वाराणसी में गंगा आरती देख चुका हूँ...इसलिए हर के पौड़ी के उस स्वरूप की कल्पना
करके माँ गंगा को नमन करते हुए देर तक घाटों पर भ्रमण करता रहा।यहाँ गंगा की दो
धाराएं निकालकर बीच में बहुत बड़ा स्पेस रखा गया है,जहाँ यात्रियों का हुजूम उमड़ा
रहता है।यहाँ की चहल पहल और यात्रियों का उत्साह देखते ही बनता है।करीब एक घंटे
यहाँ घूमता रहा और मोबाइल से कुछ तस्वीरें लेकर फेसबुक पर पोस्ट किया।फिर मातृ सदन
की ओर चल पड़ा।साधु संतों के साथ पंगत में भोजन करके बिस्तर पर लेटा तो यात्रा में
थका शरीर सुबह छह बजे के आसपास चेतनावस्था में आया।नित्यक्रिया के पश्चात आश्रम के
संतों से बात करने पर पता चला कि गंगोत्री और बद्रीनाथ के लिए डायरेक्ट बसें हैं
लेकिन वे सुबह छह बजे ही चली जाती हैं क्योंकि वहाँ पहुँचने में पूरा दिन निकल
जाता है और रात में पहाड़ी रास्तों पर बसें नहीं चला करतीं।हरि इच्छा भावी
बलवाना.....मुझे हरिद्वार घूमने के लिए एक और दिन मिला।दोपहर के भोजन के पश्चात बस
अड्डे की ओर निकल पड़ा।हरिद्वार में गंगा की चार पाँच धाराएँ देखने को मिलीं,पता
चला कि सिंचाई के लिए ये धाराएँ निकाली गई हैं। मैंने यात्रा से संबंधित
जानकारियाँ लेनी शुरू की तो पता चला कि चारों धाम की यात्रा में अमूमन 9 दिन का
समय लगता है जिसका यात्रियों से पैकेज डील होता है।यह पैकेज तीन हजार से बीस हजार
तक का है जिसमें अलग अलग तरह की सुविधाएं हैं।ऋषिकेश में साफ सुथरी ब्यवस्था
है,यहाँ से थोड़ा घालमेल भी है। उत्तराखंड
सरकार की बसें हरिद्वार से गंगोत्री और बद्रीनाथ तक तो जाती हैं लेकिन केदारनाथ और
यमुनोत्री के लिए कई टुकड़ों में यात्रा करनी पड़ती है।मैंने निर्णय किया कि कल
सुबह की बस से पहले गंगोत्री जाऊँगा फिर आगे देखा जाएगा।यहाँ से मैंने बाबा रामदेव
के पतंजलि योगपीठ जाने का निश्चय किया।यह स्थान हरिद्वार से 25 किलोमीटर दूर
रुड़की जाने के रास्ते में साहिबाबाद के पास है।बस का किराया 20रुपये है।पतंजलि
योगपीठ फेज-2के पास उतरकर संस्थान में प्रवेश किया तो बड़ा ही सुरम्य वातावरण
था।यहाँ आयुर्वेद पद्धति से रोगों का उपचार होता है और आचार्य बालकृष्ण की देखरेख
में संस्थान संचालित होता है।यहाँ से पाँच मिनट की दूरी पर सड़क की दूसरी ओर
पतंजलि योगपीठ फेज-1और पतंजलि रिसर्च सेंटर स्थापित है।कई एकड़ में फैले ये दोनों
संस्थान अद्भुत और दर्शनीय हैं लेकिन यहाँ आम आदमी को जाने की अनुमति नहीं
है।सिर्फ फेज-2 में ही बाबा रामदेव की विभूतियों और ऐश्वर्य के दर्शन हो सकते हैं।यहाँ
कार्यरत कर्मचारियों से बातचीत करने पर पता चला कि बाबा रामदेव फेज-1 में रहते हैं
और वहीं यदा कदा योग शिविर लगता है।अब तो उनका अधिकांश योग शिविर बाहर ही लगा करता
है।फेज-2 मे पहले माले तक गाड़ियाँ जाती हैं।उस दिन आचार्य बालकृष्ण से मिलने कोई
नेता जी आए हुए थे जिनके साथ दो तीन बंदूकधारी भी थे।सफेद कुर्ता और लुंगी पहने आचार्य
उन्हें गाड़ी तक छोड़ने आए तो वहाँ रखवाली कर रहे गार्डों में पाँव छूने की होड़
मच गई।परिसर में कई ऋषियों की शांत मुद्रा में मूर्तियाँ लगी हुई हैं।चक्राकार
फव्वारे और उनके आस पास लगे पेड़ पौधे आँखों को बहुत सुकून दे रहे थे, सूर्यास्त
होने के बाद बिजली की चमक में ये नजारे और भी खूबसूरत लग रहे थे। चूँकि मुझे
अलसुबह गंगोत्री की यात्रा पर निकलना था इसलिए वहाँ से जल्द प्रस्थान करना उचित लगा।
मैं10 जून की सुबह हरिद्वार बस डिपो से गंगोत्री जानेवाली बस में बैठ
गया।गंगोत्री का किराया 478 रुपए था।बस में इतनी लंबी यात्रा के लिए मैं पहली बार
बैठ रहा था।बस ऋषिकेश तक मैदानी भाग में थी लेकिन ऋषिकेश के बाद पहाड़ों पर चढ़ने
लगी।खिड़की से बाहर देखने पर चारों तरफ पहाड़ ही पहाड़ दिख रहे थे।बस पहाड़ पर
सीधे चढ़ती ही जा रही थी।पहाड़ के शिखर तक चढ़ने के बाद बस दूसरी तरफ उतरनी शुरू
हुई।देर तक उतरती रही फिर दूसरे पहाड़ पर चढ़ने लगी....इस तरह कई पहाड़ों पर चढ़ते
उतरते दो बजे के आसपास उत्तरकाशी पहुँची।यहाँ यात्रियों के भोजन के लिए आधे घंटे
रुकी।साठ रुपए थाली में चार रोटी,हाफ प्लेट चावल और सब्जी।खाने का स्वाद अच्छा
था।लौटकर बस में आया तो क्या देखता हूँ कि एक महिला अपनी दो बेटियों के साथ मेरी
सीट पर कब्जा जमाए हुए हैं और बस में ढ़ेर सारे यात्री औने पौने होकर खड़े हैं।जब
मैंने कहा कि यह मेरी सीट है तो चुप,कुछ बोल ही नहीं रही हैं .....मैंने पूछा कि
मेरा जैकेट किधर है तो भी कुछ नहीं बोल रही हैं,दो तीन बार पूछने पर बोलीं –मुझे
क्या पता....पीछे से एक आदमी ने दिखाया- यह तो नहीं है?मैंने कहा- हाँ यही है।मैंने कंडक्टर को
बुलाकर कहा कि हरिद्वार से मैं इस सीट पर आ रहा हूँ, आपने इन्हें यह सीट कैसे दे
दी ...तो उसने कहा- मैंने तो इनसे साफ कहा कि सीट नहीं है,खड़े होकर चलना हो तो
चलिए लेकिन ये मैडम मानी नहीं और आपकी सीट पर आकर बैठ गईं।इन्हें बैठने दीजिए...आप
खड़े हो जाइए- कंडक्टर ने कहा लेकिन वह महिला टस से मस नहीं हुईं ....वह मेरे साथ दो और यात्रियों का जगह घेरे
हुए थीं...वे दोनों यात्री भी बेचारा बनकर बगल में खड़े थे।मैंने कंडक्टर से
कहा-मेरा पैसा वापस करिए,मैं दूसरी बस से जाऊँगा....कंडक्टर ने जब फिर महिला से
ऊँचे स्वर में कहा कि इन्हें बैठने दीजिए तो महिला ने एक बेटी को गोद में बिठाकर
एक सीट खाली कर दी।मैं किसी तरह स्थापित हुआ।मन खिन्न हो गया लेकिन क्या
करता...थोड़ी देर बाद समझ में आया कि यह दक्षिण भारतीय महिला हैं और इनके साथ दो
पुरुष भी हैं।
उत्तरकाशी से सड़क की बनावट दूसरे तरह की थी।दोनों तरफ पहाड़...बीच
में कई सौ फीट नीचे गंगा और गंगा के
समानांतर बनी हुई सड़क....कहीं बहुत ऊपर,कहीं थोड़ा पास पास।बस तेजी से इतने झटके
और मोड़ लेते हुए जा रही थी कि आगे की सीट को पकड़कर सहारा न लिया जाय तो इधर उधर
चोट लग जाय या व्यक्ति अपनी सीट से गिर पड़े।इस रस्ते पर हर दो मिनट बाद या उससे
भी पहले अंधे मोड़ हैं,इसलिए ड्राइवर बहुत सावधानी से हार्न बजाते हुए वाहन चलाते
हैं।इतनी सावधानी के बावजूद कई जगह बस सामने से आ रहे दूसरे वाहनों के आसपास
इमरजेंसी ब्रेक लगाकर रुकी।इससे आप इस यात्रा के रोमांच को समझ सकते हैं।सुबह
साढ़े छह बजे हरिद्वार से चली बस शाम को साढ़े छह बजे गंगोत्री पहुँची ....यानी
पूरे बारह घंटे लगे इस यात्रा में।
·
बस से उतरकर मैंने पता किया कि सुबह यहाँ से
केदारनाथ के लिए कोई बस है या नहीं।मालूम हुआ कि यहाँ से कोई सीधी बस नहीं जाती।उत्तरकाशी
से पहले श्रीनगर जाना होगा,वहाँ से दूसरी बसें बदलकर सोनप्रयाग तक पहुँचना होगा जो
केदारनाथ यात्रा का अंतिम पड़ाव है।उत्तरकाशी से सुबह दो बसें हैं,एक छह बजे और
दूसरी साढ़े आठ बजे... लेकिन दोनों बसें गंगोत्री से उत्तरकाशी तक पहुँचने से पहले
छूट जाएंगी क्योंकि गंगोत्री से वहाँ पहुँचने में कम से कम चार घंटे लगते हैं और
सुबह छह बजे से पहले वहाँ के लिए कोई बस नहीं है ...यानी किसी भी सूरत में दूसरे
दिन उत्तरकाशी में रुकना होगा।यह जानकारी प्राप्त करने के बाद मैं सीधा गंगा मंदिर
की ओर बढ़ने लगा।बीच मे कई लोग पीछे पीछे लगे.....रूम चाहिए क्या ....चलो देख
लो...नहीं कहते हुए मैं आगे बढ़ता रहा और गंगा मंदिर परिसर में जाकर ही रुका।मंदिर
थोड़ी ऊँचाई पर है...नीचे बहुत वेग से गंगा जी बह रही हैं।मैं सीढ़ियों से नीचे
उतरकर गंगा जी तक पहुँचा।हाथ में गंगाजल लेकर माथे से स्पर्श किया और दो घूँट पिया
भी।मोबाइल निकालकर देखा तो किसी भी सिम का
नेटवर्क नहीं।मेरे पास टाटा के दो,एक जिओ और एक एयरसेल कंपनी का सिम था लेकिन
अफसोस किसी में नेटवर्क नहीं था।लोगों से पता चला कि यहाँ सिर्फ बीएसएनएल का सही
नेटवर्क है।एक दो और कंपनियों का है मगर उतना अच्छा नहीं।ऊपर माइक से घोषणा हो रही
थी- आठ बजे गंगा जी की आरती होगी।श्रद्धालुओं से निवेदन है कि जूते चप्पल उतारकर
मंदिर परिसर में पंक्तिबद्ध हो जाएँ ताकि दर्शन में किसी को असुविधा न हो।आरती के
समय तक काफी भीड़ हो गई।आधे घंटे तक आरती चली और लगभग एक घंटे तक यात्रियों ने
पंक्तिबद्ध होकर मंदिर में गंगा जी की मूर्ति के दर्शन किए।करीब साढ़े नौ बजने लगे
तो मुझे महसूस हुआ कि अब रात्रि विश्राम के लिए जगह देखनी चाहिए।मंदिर परिसर से ही
सटा हुआ दाईं तरफ एक बोर्ड लगा हुआ था- काली कमलीवाला निवास।मैं सीढ़ियों से ऊपर
चढ़ गया। ऊपर दो लोग कहीं जा रहे थे जो मुझे देखकर रुक गए।बोले- रूम चाहिए ?मैंने कहा- हाँ, तो
कहने लगे –चार सौ रुपया लगेगा।मैंने कहा कि मैं अकेले हूँ,डोरमेट्री में भी मेरा काम
चल जाएगा, वे बोले –नहीं जी अभी तो कोई भीड़ नहीं है,कमरे खाली हैं....चलिए आपको
दो सौ में ही दे देते हैं,लेकिन उसकी कोई रसीद परची नहीं मिलेगी।मैंने कहा-मुझे तो
रात बिताने से मतलब है,बिल वाउचर की कोई जरूरत नहीं है।उस व्यक्ति ने पैसे लेकर
रूम खोल दिया।ऊपर से गंगामंदिर और गंगा जी के दिव्य दर्शन हो रहे थे।शरीर थका हुआ
था।वहाँ अच्छी खासी ठंड भी थी,इसलिए बाहर जाकर भोजनालय ढ़ूँढ़ने का मन नहीं
हुआ।भूख भी कुछ खास न थी।आराम करने का मन हो रहा था।मैंने कपड़े बदले और रजाई में
दुबककर सो गया।पानी बहुत ठंडा था,इसलिए प्यास होने के बावजूद पिया नहीं जा रहा
था।सुबह नित्यक्रिया के बाद आठ बजे के आसपास मैं वहाँ से बाहर निकला।इतनी ठंड थी
कि स्नान करने की हिम्मत नहीं हो रही थी।मैंने सोचा कि उत्तरकाशी में मौसम सामान्य
है,वहीं स्नान होगा।नीचे रातवाले सज्जन एक मिट्टी के घर में बड़े हंडे में पानी
गरमाते हुए मिले- कहने लगे कि नहाने का एक बाल्टी पानी 40रुपये में आएगा।पीना हो
तो एकाध बोतल ले जाइए।मैंने कहा- रात में दे देते तो अच्छा था।बोले –हाँ,याद नहीं
रहा।
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मैंने कहा- मैं अब निकल रहा हूँ।ताला चाबी कुछ था
नहीं,इसलिए सिटकिनी लगाके छोड़ दिया है।बोले –कोई बात नहीं ....जै गंगा मइया
की।मैं वहाँ से नीचे उतरा।गंगा मंदिर का बाहर से ही पुनः दर्शन किया,थोड़ी देर घाट
पर चहलकदमी की।सीढ़ियों के ठीक नीचे लिखा मिला - राजा भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग से
धरती पर लाने के लिए यहीं तप किया था।मन श्रद्धा से भर गया।मैंने बोतल में
गंगोत्री का जल भरा और वाहन स्टैंड की ओर चल दिया।बीच में एक जगह गोमुख -18
किलोमीटर लिखा था।पूछने पर पता चला कि गोमुख जाने के लिए प्रतिदिन मात्र150
व्यक्तियों को अनुमति है।150रुपये की रसीद कटती है,फिर जाने देते हैं।स्टैंड पर पहुँचा
तो एक बोलेरो जीप सवारियों की प्रतीक्षा में थी।छह सवारियाँ हो गई थीं,उसे चार और
लोगों की तलाश थी।यहाँ यात्री बसें,जीपें ऐसे ही चला करती हैं ...कोई टाइम टेबल
नहीं ...सवारी होगी तो चलेंगे।करीब नौ बजे निर्धारित सीटें भरीं तो जीप स्टार्ट
हुई।करीब एक बजे हम उत्तरकाशी पहुँचे।मैं बस स्टैंड में श्रीनगर की बस के बारे में
पता करने पहुँचा तो वही जानकारी मिली जो गंगोत्री में मिली थी।जानकारी में एक
इजाफा यह हुआ कि शाम को ही टिकट ले लेना होगा वर्ना सुबह सीट नहीं मिलेगी,खड़े
खड़े जाना होगा।खैर...एक होटल में पेटपूजा के पश्चात रात्रि विश्राम के लिए जगह
ढ़ूँढ़ने निकला। काली कमली वाले संस्थान में जाने पर मैनेजर ने बताया कि हमारे
नियम में है कि हम अकेले स्त्री या पुरुष को कमरा नहीं देते।मैंने कहा-गंगोत्री
में तो मैं आपके ही संस्थान वाली जगह में था।वे बोले- यहाँ तो यही नियम है।दो तीन
अन्य धर्मशालाओं में गया लेकिन उन लोगों ने भी रूम देने से मना कर दिया।पहले
पूछते- कितने आदमी हैं...फिर बोलते – नहीं,हमारे यहाँ कमरा खाली नहीं है।एक
स्थानीय सज्जन से मैंने बात की तो वे बोले- आप सरकारी वाले पंचायत धर्मशाला में
चले जाइए।पहचान पत्र तो है न!मैंने कहा- हाँ,बिल्कुल है।
·
-तो आपको कमरा जरूर मिल जाएगा।पंचायत धर्मशाला
में पहचान पत्र दिखाकर मुझे बिना किसी अन्य पूछताछ के तीन सौ रुपये में रात भर के
लिए एक कमरा मिल गया।मैंने शाम चार बजे इतमीनान से तीन चार बाल्टी पानी लेकर स्नान
किया और उसके पश्चात गंगा तट पर घूमने निकला।वहाँ क्या देखता हूँ कि गंगा के तट पर
बने आश्रमों के बड़े बड़े नाले सीधे गंगा की ओर खुले हुए हैं....वह तो गंगा का
प्रवाह वहाँ इतना तेज है कि इस गंदगी से यहाँ का तट बहुत कम प्रदूषित दिख रहा है...वैसे
प्रदूषण है,यह भी तो क्षमा के योग्य नहीं।वहाँ से बस स्टैंड की ओर बढ़ा ताकि रात
में ही सीट बुक करायी जा सके पर वहाँ जाने
पर पता चला कि सुबह छह बजे श्रीनगर जानेवाली उस मिनी बस की सारी सीटें भर चुकी
हैं।दूसरी बस साढ़े आठ बजे जाती है लेकिन 50-60 किलोमीटर घूमकर चम्बा के रास्ते से
जाती है और शाम तक पहुँचती है।मुझे काटो तो खून नहीं।एक सज्जन ने कहा- आप टैक्सी
स्टैंड चले जाइए,वहाँ से भी श्रीनगर के लिए साधन मिल सकता है।वहाँ पहुँचा तो पता
चला कि एक जीप सुबह श्रीनगर जा रही है लेकिन उसमें सवारी फुल हो चुकी है।मैंने
ड्राइवर से मिलकर कहा कि एक सीट का जुगाड़ करो तो उसने कहा कि चूँकि पाँच घंटे का
रास्ता है इसलिए मैनेज नहीं हो सकता।आप सुबह आइए,कभी कभी सीट बुक करनेवाली
सवारियाँ नहीं आतीं तो हम दूसरी सवारियाँ बिठा लेते हैं।मैं चिंता में पड़
गया...रात में खाना खाने के बाद धर्मशाला पहुँचा,मोबाइल में सुबह चार बजे का
अलार्म लगाया और सो गया।
·
सुबह नित्य क्रिया और स्नान के पश्चात स्वच्छ मन
से हनुमान चालीसा पढ़ते हुए टैक्सी स्टैंड की ओर रवाना हुआ।रात वाला ड्राइवर बाहर
ही खड़ा मिला....कहने लगा कि एक सज्जन पाँच सवारी की बात करके गए थे,अभी उनका कुछ
पता ही नहीं है।दूसरे ड्राइवरों ने कहा कि जो आता है उसे बिठा लो,नहीं तो ये भी
लोग चले जाएंगे....उसने कहा- हाँ पाँच बजे का टाइम दिया था उनको,साढ़े पाँच बज
गए,अभी तक नहीं आए।मेरे अलावा दो और लोग थे जो ड्राइवर से बार बार पूछ रहे थे कि
बिठाओगे या कोई और रास्ता देखें...अंततः ड्राइवर ने हमें बिठा लिया क्योंकि रात
में बात करके गए बाकी लोग आ चुके थे।जीप चलने को हुई तो वे सज्जन स्टैंड में
पहुँचे और कहने लगे कि मैं पाँच सीट की बात करके गया था।ड्राइवर ने कहा कि आप समय
से नहीं आए इसलिए मैंने दूसरी सवारी बिठा ली।आप दूसरी टैक्सी रिजर्व में देख
लें।हमारे सामने ही उन्होंने श्रीनगर के लिए तीन हजार में एक टैक्सी बुक किया और
लेकर घर की ओर रवाना हुए।यानी 12 सवारी का पैसा उन्हें पाँच लोगों के लिए ही अदा
करना पड़ा।हमारी जीप रवाना हो चुकी थी।पहाड़ों के किनारों को काटकर बनाई हुई यह वह
सड़क थी जिस पर ड्राइविंग में हुई गलती की सजा जान की कीमत देकर ही चुकानी थी।सड़क
के किनारों पर कोई मजबूत बैरिकेटिंग नहीं
थी जो जीप के असंतुलन को थोड़ा भी सम्हाल पाती।रास्ते गंगोत्री वाले रूट की तरह ही
घुमावदार और अंधे मोड़ वाले थे।पहाड़ों को काटकर खेत बनाए हुए दिख रहे थे जिनमें
कुछ पौधे उगे हुए थे।दूर से यह समझ में नहीं आ रहा था कि किस चीज की खेती की गई है
लेकिन पहाड़ों पर चौड़ी सीढ़ियों की तरह बने ये खेत देखने में बहुत सुंदर लग रहे
थे।एक बजे तक हमारी जीप श्रीनगर पहुँच गई।हमने250रुपये किराया अदा किया और
सोनप्रयाग की बस की खोज में निकल पड़े।कई लोगों से बात करने पर पता चला कि
सोनप्रयाग के लिए कोई सीधी बस नहीं मिलेगी।यहाँ से रुद्रप्रयाग जाइए,वहाँ से
गुप्तकाशी और फिर वहाँ से सोनप्रयाग।रुद्रप्रयाग के लिए एक छोटी बस खड़ी थी।मैं
उसमें जाकर बैठ गया।50रुपये टिकट था।कोई डेढ़ घंटे में बस रुद्र प्रयाग पहुँची।यह
बस उसी तरह के पहाड़ी रास्ते पर चल रही थी।हाँ,अब नीचे से बहती हुई मंदाकिनी नदी दिख
रही थी।हजारों फीट ऊपर से नीचे के नदी और पहाड़ों के दृश्य देखना बहुत अच्छा लग
रहा था लेकिन रह रह कर यह सोचकर मन में सिहरन सी होती थी कि इन्हीं पहाड़ों से
पत्थर गिरने और बसों के नीचे गिरने की खबरें आया करती हैं जिनमें किसी के जीवित
बचने की खबर नहीं होती और लाशें भी बड़ी मुश्किल से मिलती हैं।गंगोत्री के रास्ते
में भटवारी के पास 4 जून को एक जीप नदी में गिरी थी जिसमें अब तक मात्र दो लोगों
की लाशें बरामद हुई थीं,बाकी लोगों और जीप का कोई पता ही नहीं चला।इन पहाड़ी
रास्तों पर ऐसी घटनाएँ आम हैं।खैर शिव शिव करते हुए रुद्रप्रयाग आ पहुँचा।यहाँ भी 60रुपए
थाली वाला खाना मिला।पूरे उत्तराखंड में थाली वाले खाने का लगभग यही रेट है।यहाँ
से गुप्तकाशी की जीप में बैठा।गुप्तकाशी तक का किराया 80 रुपए था।एक घंटे चलने के बाद
एक स्थान पर जीप रोककर ड्राइवर कहीं गया तो स्थानीय सवारियों ने कहा-इन ड्राइवरों
की यही आदत खराब है।दिन में भी दारू पीते हैं,इसीलिए एक्सीडेंट होते हैं।यात्रा के
दौरान सभी ड्राइवरों को मैंने यत्र तत्र गाड़ी रोककर मद्यपान करते हुए
देखा।गंगोत्री जाते समय भी ड्राइवर ने एक स्थान पर मदिरापान किया था।खैर प्रशासन
द्वारा कोई चुस्ती नहीं है,वर्ना ऐसा न होता।दो घंटे बाद हम गुप्तकाशी में थे।वहाँ
सोनप्रयाग के लिए एक बस खड़ी मिली।अब हल्की बूँदाबाँदी होने लगी थी।अब तक पहाड़ पर
चलती हुई बसों में बस्तियाँ बिल्कुल नहीं दिखती थीं लेकिन गुप्तकाशी से सोनप्रयाग
तक पहाड़ पर कई कस्बे नजर आए।कई कंपनियों के हेलीपैड दिखे।साथ ही खड़े और आते जाते
हेलीकॉप्टर भी दिखे।सोनप्रयाग के बाद यात्री बसों और जीपों की सीमा समाप्त हो जाती
है।यहाँ एक चेकपोस्ट बना हुआ है।यहीं पर आनेवाले यात्रियों का बायोमेट्रिक कार्ड
बनता है जिसके लिए पहचान पत्र जरूरी है।आधार कार्ड,पैन कार्ड,वोटिंग
कार्ड,ड्राइविंग लाइसेंस में से कुछ भी रहे तो यह कार्ड बन जाता है।मैं पौने छह
बजे यहाँ पहुँच गया था।छह बजे कार्ड वाली खिड़की बंद होने का समय था।पाँच-छह लोग
लाइन में थे।मैं भी खड़ा हो गया।कार्ड बन गया।इस तरह मैं सुबह लाइन में लगने से
मुक्त हुआ।सोनप्रयाग बहुत छोटी सी बस्ती है।2013 में आई आपदा के बाद यहाँ दुबारा
बस्ती बसी है।यहाँ रुकने के लिए मैं होटल खोज रहा था,तभी एक संत मिले।बोले-यहाँ से
पुल पार करके गौरीकुंड चले जाइए,यात्रा वहीं से शुरू करनी है।यहाँ रूक करके आप
सबेरे एक घंटे पीछे हो जाएंगे। होटलों का जो भाव यहाँ है,वहाँ भी वही है।6 जून के
बाद सीजन ऑफ हो जाता है।बच्चों की छुट्टियाँ मई में होती हैं,अधिकांश लोग मई में
ही आते हैं।इसलिए उस समय सस्ते होटल भी महँगे हो जाते हैँ।मुझे उनकी बात सही लगी।मैंने
चेकपोस्ट के बाद पड़नेवाला पुल पार किया।यहाँ ड्राइवर जीप की सीट भरने का इंतजार
कर रहा था।एक सज्जन ड्राइवर से पूछने लगे कि 2013 की आपदा के समय के बाद यहाँ क्या
बदलाव हुआ।ड्राइवर ने अपने मोबाइल से चित्र दिखाते हुए कहा- पहले ऐसा था,अब ऐसा
है।यह पुल दो बार बना,ढ़ह गया।अबकी अमरीकी इंजीनियरों ने बनाया तो टिका हुआ है।वहाँ
से 4 किलोमीटर दूर गौरीकुंड पहुँचने का किराया 20 रुपए था।गौरीकुंड बहुत छोटी सी
जगह है।आपदा के बाद यहाँ नये निर्माण के लिए कोई अनुमति नहीं है।फिर भी कुछ नव
निर्माण हुआ है।यहाँ तीन सौ रुपए में एक कमरा मिल गया।सीढ़ियों से नीचे उतरकर मैं
गौरी मंदिर के पास पहुँचा।लोगों ने बताया –यहीं माँ गौरी ने भगवान शंकर को प्राप्त
करने के लिए तप किया था,इसलिए इस स्थान का नाम गौरीकुंड पड़ा।गौरीकुंड स्थित गर्म
पानी का कुंड तो आपदा में बर्बाद हो गया लेकिन प्रशासन ने एक पाइप लगाकर उस स्रोत
को चलायमान रखा है जिससे गर्म पानी आता रहता है।मैं सुबह के चार बजे होटल का मग और
बाल्टी लेकर वहाँ पहुँचा और इतमीनान से स्नान किया।सुबह काफी ठंड थी लेकिन इस पानी
से स्नान कर जिस आनंद की अनुभूति हुई,वह जीवन में पहले कभी नहीं हुई थी।होटल में
आकर तैयार हुआ और एक प्लास्टिक बैग में छाता,बरसाती,टोपी,नमकीन-बिस्किट और पानी का
बोटल लेकर 18 किलोमीटर की केदारनाथ पहाड़ की चढ़ाई के लिए निकल पड़ा।अपना पिठ्टू
बैग जिसमें दो तीन कपड़े और कुछ अन्य जरूरी सामान थे,लॉकर में जमा करा दिया।बाहर
निकलकर मैंने बीस रुपए में एक बाँस की छड़ी और बीस रुपये में ही मिलनेवाला एक पतले
प्लास्टिक का बरसाती खरीदा जो चढ़ाई में मेरा हमसफर बनने वाले थे।घोड़े वालों ने
यह कहते हुए थोड़ा पीछा किया कि आइए घोड़े से जल्दी और आराम से दर्शन हो जाएँगे
लेकिन मेरा रुख देखकर बिना बोले वे यह समझ गए कि यह पदयात्री है।यात्रा के लिए बनी
यह पहाड़ी सड़क रेलवे स्टेशन के पुल वाली सीढ़ियों जितनी जगह में बनी थी।कहीं उससे
थोड़ा कम,कहीं उससे थोड़ा अधिक।रामबाड़ा तक 8 किलोमीटर आधा रास्ता माना जाता
है।आपदा के समय यहाँ भारी तबाही हुई थी और आवासीय जगहें पूरी तरह ध्वस्त हो गई थीं।पहले
शुरू से आखिर तक बाईं तरफ से ही केदारनाथ तक जाने का रास्ता था लेकिन आपदा में
रामबाड़ा के बाद का रास्ता पूरी तरह नष्ट हो गया।कहीं कहीं उसके अवशेष दिखाई पड़ते
हैं।फिलहाल रामबाड़ा से दाईं तरफ पहाड़ काटकर नई सड़क बनी है।उस पार जाने लिए बीच
में दो छोटे पुल हैं।लोग बता रहे थे कि बाईं तरफ का रास्ता काफी सुगम था।नया
रास्ता तो फिलहाल बहुत दुर्गम है।इस सड़क पर खड़ी चढ़ाई हो गई है।लेकिन सोचनेवाली
बात यह है कि वह रास्ता सैकड़ों साल से अस्तित्व में था।उसे सुगम बनाने में कई
पीढ़ियों का योगदान था।एक साल के भीतर नया रास्ता बनाकर प्रशासन ने इस यात्रा को
पुनः प्रारंभ करा दिया,इसके लिए तो वह धन्यवाद का पात्र है ही।6 महीने तो इधर बर्फ
ही जमी रहती है।छह महीने में 8 किलोमीटर लंबा रास्ता बना देना एक बड़ी उपलब्धि
है।रास्ते में सभी प्राइवेट दुकानें हैं और उनका तर्क है कि सामान लाने में उन्हें
काफी श्रम और पैसा खर्च करना पड़ता है,इसलिए वे सामान की कीमत से डेढ़ दो गुना
कीमत वसूल करते हैं।सरकार चाहे तो अपने केंद्र खोलकर यात्रियों से हो रही इस लूटपाट
को बंद कर सकती है।पराठा 40रुपये,सब्जी 30 रुपए,कोल्ड ड्रिंक 25 की एमआरपी वाला 50
रुपए आदि आदि।रामबाड़ा से आगे की चढ़ाई कठिन थी।पैर थक चुके थे।आनेवाले बता रहे थे
कि अभी तो आधा से ज्यादे चढ़ाई बाकी है।रास्ते में जब तब हल्की बूँदाबाँदी भी शुरू
हो जाती थी।दो बार तो देर तक पानी बरसता रहा। उठते बैठते शाम के छह बजे तक मैं
मंदाकिनी के तट पर पहुँचा।यहाँ बोर्ड टँगा था- केदारनाथ मंदिर 500 मीटर,लेकिन
मंदिर यहाँ से भी दिखाई नहीं दे रहा था।मैं आश्वस्त हुआ कि अब तो पहुँच ही गया हूँ।थोड़ा
विश्राम कर लूँ,फिर आगे बढ़ूँ।मंदाकिनी के तट पर बने एक शेड पर बैठ गया।सूर्यास्त
होने वाला था।अब काफी ठंड लगने लगी थी।मैंने भीतर ऊनी जैकेट और ऊपर से जींस का फुल
शर्ट पहना तो थोड़ी राहत मिली।यहाँ से दिख रही पहाड़ों पर जमी बर्फ काफी आकर्षक लग
रही थी।बगल में बने हेलीपैड पर हर पाँच मिनट बाद हेलीकॉप्टर यात्रियों को लेकर आ
जा रहे थे।कुछ देर बाद कानपुर से पधारे एक प्राध्यापक चौहान जी आकर मेरी बगल में
बैठ गए।उनसे बातचीत होने लगी और जल्द ही हमदोनों एक दूसरे से घुलमिल गए।उन्होंने
कहा कि वे जिस होटल में तीन मित्रों के साथ रुके हैं,उसमें एक बेड खाली है।मैं
चाहूँ तो उसमें रुक सकता हूँ।मैंने सहर्ष स्वीकार कर लिया।वे अपने साथ होटल के
कमरे में ले गए जो मंदिर के बिल्कुल पास में था।थोड़ी देर विश्राम करके मैं दर्शन
के निमित्त निकला।पूजा के सामान की दुकान से लाचीदाने का पैकेट लिया।वहाँ कुछ
प्लास्टिक के फूल और मालाएँ रखी हुई थीं,जिन्हें कुछ लोग खरीद भी रहे थे मगर मैंने
उन्हें लेना उचित नहीं समझा।पता चला कि यहाँ विशेष पूजा हेतु हेलीकॉप्टर से कुछ
फूल मालाएँ आती हैं।मगर रेगुलर यात्रियों के लिए कुछ नहीं मिल पाता।एक दुकानदार ने
किसी खास महीने का जिक्र करते हुए कहा कि उस समय आइए तो ब्रह्मकमल मिलेंगे जो
इन्हीं पहाड़ों में खिलते हैं।रात की आरती का समय था...मंदिर में काफी भीड़
थी।वाराणसी के विश्वनाथ मंदिर में जिस तरह प्रशासन चौकस है,यहाँ ऐसा कुछ नहीं लगा।दर्शनार्थियों
की रेलमपेल मची हुई थी।मैं थोड़ी देर बाद वहाँ से निकला तो बगल में माइक पर आवाज आ
रही थी- भंडारे में सभी भक्तों का स्वागत है।कृपया प्रसाद छोड़े नहीं,उतना ही लें
जितना खा सकते हैं।मैं भी लाइन में लग गया।दस लोग मेरे आगे रहे
होंगे।पूड़ी,सब्जी,दाल-चावल सब कुछ बड़ा स्वादिष्ट और एक अच्छी थाली में मिला था।थोड़ा
अलग खड़े होकर खा चुकने के बाद बगल के नल पर थाली धोया और उसे जमाकर वापस होटल में
आ गया।थोड़ी देर तक चौहान जी और उनके मित्रों से बातें होती रहीं,फिर कब नींद ने
अपने आगोश में ले लिया पता ही नहीं चला।सुबह चार बजे के आसपास नींद खुली।मंदिर से
रह रह कर घंटियों की आवाज आ रही थी।मैं नित्यक्रिया से निवृत्त हुआ।ठंड इतनी अधिक
थी कि स्नान करने की हिम्मत नहीं हो रही थी।मैंने एक मंत्र का पाठ किया-
·
ऊँ अपवित्रो पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोपि वा
·
यःस्मरेत् पुंडरीकाक्षःस बाह्यभ्यंतरः शुचि।
·
संक्षेप में इसका अर्थ यह है कि अपवित्र या
पवित्र किसी भी अवस्था में जो कोई भी कमल के समान नेत्र वाले भगवान विष्णु का
स्मरण कर लेता है,वह बाहर भीतर से शुद्ध हो जाता है।इस श्लोक का पाठ करके मैंने
केदारनाथ मंदिर में प्रवेश किया।रात में अत्यधिक भीड़ के कारण ज्योतिर्लिंग स्पष्ट
नहीं दिख रहा था।सुबह सब कुछ स्पष्ट दिख रहा था।मंदिर दो भागों में है।पहले भाग
में नंदी, पांडवों तथा कुंती और द्रौपदी की मूर्तियाँ लगी थीं और दूसरे भाग में
सिर्फ भगवान शिव का ज्योतिर्लिंग।रुद्राष्टक का पाठ करके भगवान शिव को नमन करते
हुए मैं बाहर निकला और मंदिर के पीछे की तरफ उस चट्टान के दर्शन
किए जिसके आ जाने की वजह से मंदिर को कोई हानि नहीं हुई।लोग अब इस चट्टान की भी
पूजा करने लगे हैं।पीछे हिमालय पर्वतमाला थी जिस पर जमी बर्फ से उसकी शोभा कई गुना
और बढ़ रही थी।लग रहा था भगवान शिव की विशाल जटाओं में गंगा की उज्जवल तरंगें
प्रवाहित हो रही हों।यहीं से पाण्डवों ने स्वर्गारोहण किया था।युधिष्ठिर को छोड़कर
चारों भाई और द्रौपदी यहीं कहीं बर्फ में विलीन हो गए थे।अकेले युधिष्ठिर स्वर्ग
तक पहुँचे थे।उनके साथ कुत्ते के स्वरूप में स्वयं धर्मराज चल रहे थे।स्वर्ग के
द्वार पर जब युधिष्ठिर से यह कहा गया कि आप अकेले ही भीतर आ सकते हैं,यह कुत्ता
नहीं आ सकता तो उन्होंने भीतर जाने से मना कर दिया और कहा कि जो प्राणी उनके साथ
इतनी कठिनता से यहाँ तक आया है,उसे लिए बिना वे स्वर्ग के भीतर प्रवेश नहीं
करेंगे।कहते हैं कि उनका यह तर्क सुनकर कुत्ता का वेश धारण करनेवाले धर्मराज ने अपना
असली स्वरूप दिखाया और ससम्मान स्वर्ग के भीतर ले गए।केदारनाथ से संबंधित और भी
बहुत सारी यादें मन में उमड़ घुमड़ रही थीं।वातावरण इतना अच्छा लग रहा था कि वहाँ
से स्वयं को अलग करने की इच्छा ही नहीं हो रही थी लेकिन .....गृह कारज नाना
जंजाला,चेतना ने मन को झकझोर कर कहा कि तुम यहाँ तीर्थ दर्शन और पर्यटन के निमित्त
आए हो,बैरागी बनने की जरूरत नहीं है।रश्मिरथी की पंक्ति याद आई- क्रिया को छोड़
चिंतन में फँसेगा,उलट कर काल तुझको ही ग्रसेगा....।उर्दू का एक शेर भी जेह्न में
कौंधा-
·
जब तक नहीं मिले थे,न मिलने का था मलाल,अब ये
मलाल है कि तमन्ना निकल गई। जो कुछ बहुत मुश्किल से मिलता है,उससे मोह हो ही जाता
है।लेकिन समय का तकाजा था कि अब वापस लौटा जाए ।जहाँ चढ़ने में बारह घंटे लग गए
थे,उतरने में उसका आधा ही समय लगा। रास्ते में एक घोड़ा मरा हुआ मिला जिसके मुँह
पर बोरा डाला हुआ था।अगले दिन मैंने हिंदुस्तान के हरिद्वार संस्करण में पढ़ा कि
3मई से 16 जून तक 300 घोड़ों और खच्चरों की मृत्यु हो चुकी है।तीर्थ के नाम पर या
आजीविका के नाम पर इन बेजुबान जानवरों से ज्यादती देखकर मुझे अपार पीड़ा हुई।घोड़े
से जानेवाले कुछ लोग गिरकर जख्मी भी हो जाया करते हैं क्योंकि पूरे समय तक घोड़े
पर ठीक से बैठे रहने में कुछ लोगों से असावधानी हो ही जाती है।कभी कभी घोड़े भी
फिसल जाते हैं।एक औरत को मैंने घोड़े से गिरते हुए स्वयं देखा।जो घोड़े मरते
होंगे,उन पर बैठे लोगों का क्या हस्र होता होगा,इसकी कल्पना ही की जा सकती है। हेलीकॉप्टर
से आने जाने के लिए ऑनलाइन बुकिंग लेनी होती है।अगर वहाँ जाकर हेलीकॉप्टर की सेवा
चाहते हैं तो एजेंटों को अतिरिक्त पैसे का भुगतान करके ही इस सेवा का लाभ लिया जा
सकता है।
·
होटल के
लॉकर से अपना सामान लेकर मैं जब 12-30 तक सोनप्रयाग पहुँचा तो पता चला कि देहरादून
यहाँ से दिन भर का रास्ता है जिसके लिए सिर्फ सुबह में एक बस जाती है।बाद में
टुकड़े टुकड़े में यात्रा करके जहाँ तक संभव हो, पहुँचा जा सकता है।मैं तत्काल गुप्तकाशी
जानेवाली जीप में बैठ गया। गुप्तकाशी तक इसका किराया 60 रुपया था जो बस में 40 ही
है।गुप्तकाशी जाने पर पता चला कि कोई जीपवाला रुद्रप्रयाग जाने के लिए तैयार नहीं
है।इनका तर्क था कि आने की सवारी नहीं मिलेगी। ड्राइवर बातचीत में यात्रियों को
गुरजी कह कर संबोधित कर रहे थे,शायद वे गुरूजी कहना चाह रहे थे।वे बार बार यही कह
रहे थे कि गुर जी हम बुकिंग में ही जाएँगे,ऐसे नहीं....यानी जीप के आने और जाने
दोनों का खर्च देना होगा।कोई 1500 तो कोई1800 माँग रहा था।हम बीस लोग जमा थे और
अभी शाम के तीन ही बज रहे थे।हमने कहा कि आते वक्त तो 80 लगे थे,अभी100 ले
लो,लेकिन ड्राइवरों कहना था कि यहाँ से जाने का किराया 90रुपया है।कोई हिलने के
लिए तैयार नहीं था,जबकि हम 120 देने के लिए भी तैयार थे।कुछ यात्रियों ने जब 150
देने की पेशकश की तो एक बोलेरो जीप का ड्राइवर तैयार हुआ।ढ़ाई घंटे बाद हम
रुद्रप्रयाग में थे।यहाँ से श्रीनगर के लिए कोई बस नहीं थी।स्थानीय लोगों से पता
चला कि तीर्थयात्रा के समय बसें-जीपें कम हो जाती हैं।बाहर से आनेवाले लोग इन्हें
बुक कर लेते हैं।करीब एक घंटे तक इधर उधर टहलने और पूछताछ करने के बाद मन मारकर
रुद्रप्रयाग में ही रुकने के लिए विवश होना पड़ा।थोड़ा ढ़ूँढ़ने पर तीन सौ में बस
स्टैण्ड के नजदीक एक गेस्टहाउस मिल गया।मोबाइल में सुबह साढ़े चार बजे का अलार्म
लगाकर मैं सो गया।सुबह नित्यक्रिया और स्नान के पश्चात तैयार होकर 5 बजे तक बस
स्टैंड पहुँच गया ताकि पहली गाड़ी से देहरादून के लिए रवाना हो सकूँ।स्टैंड में
जाने पर एक सज्जन ने कहा कि चार धाम यात्रा सीजन की वजह से बसों/जीपों का शेड्यूल
गड़बड़ हो गया है,फिर भी कोई न कोई साधन मिल ही जाएगा।थोड़ा इंतजार कीजिए।पता चला
कि ऋषिकेश के लिए जीपवाले 300 और बसें 200 रुपये किराया ले रहे हैं। देहरादून की
कोई डायरेक्ट बस नहीं थी।मुझे एक घंटे इंतजार के बाद ऋषिकेश के लिए एक बस मिल गई। मुंबई
से चलते वक्त मैंने इस यात्रा की सूचना फेसबुक पर डाल दी थी। इसे पढ़कर मेरे छात्र
जीवन के परम मित्र रामविनय सिंह (जो अब देहरादून के डीएवी कॉलेज में एसोसिएट
प्रोफेसर हैं) ने जोर देकर कहा था कि बिना उनसे मिले नहीं जाना है।आज मैं उनसे ही
मिलने देहरादून जा रहा था।मैंने रामविनय जी को फोन किया तो उन्होंने कहा कि आप
ऋषिकेश से बस बदल लीजिएगा।एक घंटे का ही रास्ता है वहाँ से।मैं साढ़े ग्यारह बजे
तक ऋषिकेश पहुँच गया।वहाँ से तुरत एक अच्छी बस देहरादून के लिए मिल गई।मैंने उनके
निर्देशानुसार ऋषिकेश से चलने के फश्चात पुनः फोन कर दिया।उन्होंने कहा कि
देहरादून पहुँचकर पुल के पास उतर जाइए,मैं वहीं मिलूँगा।वादे के अनुसार वे गाड़ी
लेकर अपने एक अन्य मित्र के साथ वहाँ उपस्थित मिले।करीब बीस साल बाद एक आत्मीय
मित्र से मिलने की जो खुशी हो सकती है,वह शब्दों में वर्णन से परे है।संस्कृत के
प्राध्यापक रामविनय सिंह की गिनती आज हिंदी और संस्कृत के वरिष्ठ सुकवियों में
होती है।उन्होंने जानकीवल्लभ शास्त्री के काव्य पर अपना शोध ग्रंथ लिखा है, जिसकी
विद्वानों ने भूरि भूरि प्रशंसा की है।उनके घर पहुँचकर मैंने हिंदी के वरिष्ठ
गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र को फोन किया।कहने को तो देहरादून में ही उनका निवास स्थल
है लेकिन वे अधिकतर शहर से बाहर पर्यटन और साहित्यिक सभाओं/कविसम्मेलनों में व्यस्त रहा करते हैं।
वर्ष में उनसे मेरी दो तीन मुलाकातें तो हो ही जाती हैं।संयोग से उस दिन वे
देहरादून में ही थे।उन्होंने मुझसे कहा कि अभी तेल भवन आया हूँ।तीन बजे तक घर
पहुँच जाऊँगा,आपलोग पधारें।रामविनय जी के दो मित्रों के आने की वजह से हम देर से
निकल पाए और बुद्धिनाथ जी के घर करीब छह बजे पहुँचे।वे स्वागत करते हुए मैथिली में
बोले कि कब से राह देख रहा हूँ ...कहाँ रह गए थे।रामविनय ने मैथिली में ही उत्तर
दिया कि दो मित्र आ गए थे,अतः विलंब हो गया।साढ़े नौ बजे तक साहित्यिक चर्चा होती
रही।विविध विषयों पर बातें होती रहीं।काव्यमंचों की बात चली तो मैंने कहा कि वहाँ
भी गंगा की तरह ही प्रदूषण फैला हुआ है।रामविनय ने कहा- गंगा नहीं यमुना की तरह
कहिए।बुद्धिनाथ जी ने कहा- मुझे तो डर है कि कहीं कविता सरस्वती (नदी) की तरह
लुप्त न हो जाय!हम तीनों इस बात पर हँस पड़े।बुद्धिनाथ जी का इसरार था कि हम खाना
खाकर जाएँ लेकिन रामविनय ने कहा कि श्रीमती जी खाना बनाकर हमारा इंतजार कर रही
हैं।करीब साढ़े नौ बजे हम उनके घर से निकल गए।आधे घंटे में घर पहुँच कर खाना पीना
हुआ।सुबह हरिद्वार से 12-30 पर मुंबई के लिए मेरी ट्रेन थी जो जानेवाली तो
देहरादून से ही थी लेकिन मुझे हरिद्वार मातृसदन पहुँचकर अपना बैग भी लेना था इसलिए
मैं देहरादून से सुबह पाँच पचास की एक्सप्रेस से हरिद्वार चला आया।लगभग 11 बजे
बुद्धिनाथ जी का फोन आया कि दिल्ली में एक दिन रुक जाओ।18 को हिंदी भवन में
शंभुनाथ सिंह शतवार्षिकी समारोह में कवि सम्मेलन है,उसमें काव्य पाठ करते हुए
जाओ।टिकट और मानदेय की ब्यवस्था है।मेरे मन में यह बात पहले से थी कि दिल्ली में
एक दिन रुककर मित्रों से मिलता चलूँ,मगर ट्रेन का आरक्षण इस बात की इजाजत नहीं दे
रहा था।इस कार्यक्रम के चलते यह संभव हुआ।शंभुनाथ सिंह जी के शतवार्षिकी समारोह का
यह आयोजन कई अर्थों में ऐतिहासिक साबित हुआ।केंद्र सरकार के दो मंत्री मनोज सिन्हा
और महेंद्रनाथ पाण्डेय विशिष्ट अतिथि के रूप में मौजूद थे।यश मालवीय के संचालन में
करीब 15 गीतकारों ने काव्यपाठ किया जिनमें बालस्वरूप राही,माहेश्वर तिवारी,बुद्धिनाथ
मिश्र,डॉ.सुरेश,विनोद निगम,रमा सिंह,पुरुषार्थ सिंह,मधु शुक्ला आदि प्रमुख थे।सुननेवालों
में भी अधिकतर दिल्ली और बाहर से आए कवि,साहित्यकार ही थे।मेरे काव्यपाठ के पश्चात
सुख्यात कवि गंगा प्रसाद विमल ने पीछे मुड़कर हाथ मिलाया तो काफी खुशी हुई।एक
वरिष्ठ कवि का ऐसा प्रेम कविता पर सफलता की मुहर की तरह थी।19 की सुबह 6-15 पर
गोवा संपर्क क्रांति से मुंबई के लिए मेरा आरक्षण था।20 को सुबह साढ़े पाँच बजे
मैं घर पहुँच चुका था।छह से बीस तारीख तक की यह यात्रा मेरे लिए कई अर्थों में
यादगार रही।हर अनुभव तो कागज पर नहीं उतारा जा सकता न......!