Sunday, 25 November 2018


कहानी


गवर्नर साहब की विदेश यात्रा ....


- रासबिहारी पाण्डेय

गवर्नर साहब की अध्यक्षता में लखनऊ हिंदी भवन में कवि सम्मेलन चल रहा था।पाँच कवि कविता पाठ कर चुके थे,लेकिन गवर्नर साहब ने अब तक किसी को दाद नहीं दी थी।वे चेहरे को भावशून्य बनाये गंभीरता का लबादा ओढ़े किसी चिंतक की मुद्रा में बैठे थे।तभी संचालक विवेक प्रकाश ने सुमनिका का नाम पुकारा।सुमनिका का नाम सुनते ही गवर्नर साहब के चेहरे पर खुशी की किरणें दौड़ गईं।सुमनिका ने माइक पर आते ही गवर्नर साहब की खिदमत में चार पंक्तियाँ पेश की।हॉल तालियों से गूँज उठा।सुमनिका बार बार गवर्नर साहब को संबोधित और समर्पित करते हुए प्यार भरे मुक्तक और रुबाइयाँ पढ़ती जा रही थी,हालाँकि मुक्तक और रुबाई का अंतर उसे खुद पता नहीं था।रुबाई को मुक्तक और मुक्तक को रुबाई और कभी मेरी ये चार पंक्तियाँ और सुनिए...कहते हुए सुमनिका ने अपना काव्य पाठ जारी रखा।गवर्नर साहब हर चौथी पंक्ति पर तालियाँ बजाने लगते और वाह वाह,बहुत खूब,क्या कहने जैसे जुमले उछाल देते।सुमनिका ने इन चार चार पंक्तियों के बाद एक गीत सुनाया और गीत की समाप्ति के बाद गवर्नर साहब के चरण छुए।

गवर्नर साहब ने बड़े प्यार से उसके सर पर हाथ फेरा और यशस्वी भव....कहते हुए उसके गाल पर हल्की चपत लगाई।

फिर धीरे से बोले – इस बार तुमको भी अमेरिका ले चलूँगा।संपर्क में रहो।इसके तुरत बाद गवर्नर साहब अपने पूरे लाव लश्कर के साथ किसी अन्य कार्यक्रम के लिए रवाना हो गए।

अगल बगल बैठे कवियों ने आँखों ही आँखों में एक दूसरे से कुछ बातें की और होठों ही होठों में मुस्कुराने लगे।एक कवि ने दूसरे के कान में कहा- एक मिसरा हुआ है....अच्छा हुआ कि उठ के दर्दे सर चले गए....दूसरे ने कहा ...बोझा बने हुए थे गवर्नर चले गए....दोनों ने एक दूसरे के हाथ पर ताली दी और धीमे स्वर में हँसने लगे।


सुमनिका मारे खुशी के पागल हो रही थी।इस घड़ी का इंतजार उसे वर्षों से था।उसका दिल बल्लियों उछल रहा था।पहली बार किसी इतनी बड़ी राजनीतिक हस्ती ने उसके सिर पर हाथ रखा था।वह मन ही मन सोचने लगी....तो क्या उसका अमेरिका जाने का ख्वाब पूरा हो जाएगा...उसका कविता संकलन किसी प्रतिष्ठित प्रकाशन संस्थान से आ जाएगा... क्या उसे भी कोई सरकारी पुरस्कार मिल जाएगा.....उसके दिल ने जवाब दिया क्यों नहीं ...अगर गवर्नर साहब उसके ऊपर रीझ जायें तो यह सब तो उनके बायें हाथ का खेल है....तभी विवेक प्रकाश का नंबर उसके मोबाइल स्क्रीन पर चमका।हिंदी भवन के कार्यक्रम में विवेक ने ही उसे प्रस्तुत किया था।विवेक का नंबर उठाते हुए वह बोली – हाँ सर....हिंदी भवन के कार्यक्रम में कविता पढ़वाने के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
अरे धन्यवाद कैसा....तुम डिजर्व करती हो..

मगर आप प्रयास न करते तो मेरी सारी योग्यता धरी की धरी रह जाती...इतने बड़े कार्यक्रम में मेरा नाम आना मुश्किल था।

हम प्रयास क्यों न करते भला....तुम्हारे जैसी सुमुखि,सुलोचनि,पिकबचनि के लिए.....
अरे इतने भारी भरकम शब्दों का इस्तेमाल मेरे लिए मत करिए....वैसे यह शब्दावली कहाँ से उद्धृत कर रहे हैं?

रामचरितमानस से....दशरथ ने कैकयी के लिए कहा है....
ओहोहो ..... शुक्रिया शुक्रिया .....और बताइए....

देखना गवर्नर साहब जरा लँगोट के कच्चे हैं .....हर वर्ष नई नई चिड़ियों को फाँस कर साहित्य समारोहों की आड़ में विदेश की सैर पर ले जाते हैं और ....आगे तो तुम समझ ही सकती हो....सावधान रहना जरा...

क्या बात कर रहे हैं सर ....उम्र में तो वे हमारे पिता के समान हैं।

हाँ दुनिया की नजर से बचने के लिए वे बेटी का रिश्ता भी बहुत जल्द गाँठ लेते हैं,सभा समारोहों में बिटिया बिटिया कहते भी नहीं थकते मगर काम वही सब करते हैं जो बिगड़े शोहदों के होते हैं- कहते हुए विवेक ने फोन पर ठहाका लगाया।

सुमनिका ने शरमाने का अभिनय करते हुए कहा- धत् ....आपके मन में भी पता नहीं क्या क्या चलता रहता है...एक आपसे दिल क्या लगा लिया कि आप मुझे भी वही समझने लगे...

अरे वो बात नहीं है...मैं तो मजाक कर रहा था देवी....

ऐसा मजाक करके मेरा दिल मत दुखाया करिए...

तो कैसा मजाक करूँ....कहते हुए विवेक ने फिर ठहाका लगाया....

आपसे जीत पाना मुश्किल है....टॉपिक चेंज करिए....ये बताइए अगले महीने के कवि सम्मेलनों की तारीख अभी पक्की हुई कि नहीं....?

पेमेंट की बात एक दो दिन में फाइनल हो जाएगी.... फिर बताता हूँ......

देखिए रमणिका को लेकर मत चले जाइएगा।देख रही हूँ पिछले कई कवि सम्मेलनों में वह आपके साथ थी।

तुम बेकार में शक करती हो...रमणिका को किसी और ने बुलाया था,अब उसके साथ कविता पढ़ने से मैं इनकार तो नहीं कर सकता...... क्या तुमको मुझ पर भरोसा नहीं रह गया है ?

भरोसा डगमगा रहा है,तभी तो ऐसा कह रही हूँ....

ये लो बुढ़ापे में हमें अब कौन मिल रहा है...

कितनी जूली लोग घूम रही हैं....

तो क्या तुम मुझको मटुकनाथ समझ रही हो ....

सुमनिका हँसने लगी....अरे नहीं...मजाक कर रही हूँ।

विवेक के मोबाइल पर एक दूसरा नंबर चमका...वे बोले- सुमनिका!एक दूसरी कॉल आ रही है।बाद में बात करते हैं।

विवेक ने दूसरा फोन लिया- बोलो रमणिका.....कैसी हो ?

अच्छा है सर....हिंदी भवन का कार्यक्रम कैसा रहा ....?

बहुत अच्छा रहा...

हाँ.... जिस कार्यक्रम की बागडोर आप जैसे सिद्धहस्त संचालक के हाथ में होगी,उसको तो सफल होना ही है।मगर सर मैं आपसे रूठी हुई हूँ.... आपने मेरा नाम वहाँ क्यों नहीं दिया .... ?

रूठी हो तो मना लूँगा ...वैसे तुम्हारे भोलेपन पर एक शेर याद आ रहा है...इस सादगी पर कौन न मर जाय ऐ खुदा,लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं....!

शेर और कविताएँ तो आपको हजारों याद हैं सर,मुझे उसमें मत उलझाइये...सच सच बताइये क्या सुमनिका मुझसे बड़ी कवयित्री है जो उसे आप वहाँ ले गए और मुझे नहीं ....आखिर हम दोनों को लिखकर तो आप ही देते हैं.....?

मुझ पर ऐसा आरोप मत लगाओ रमणिका...मैं सिर्फ तुम्हें लिखकर देता हूँ,उसे नहीं....लगता है किसी ने तुम्हारे कान भरे हैं...सुमनिका तुमसे वरिष्ठ है..... उसके भी लोगों से संबंध हैं,किसी मंत्री विधायक ने उसका नाम आयोजन से जोड़ा होगा....

लेकिन इस बार तो कवि सम्मेलन की टीम आपने बनाई थी...

हाँ मुझसे कुछ लोगों का नाम सजेस्ट करने के लिए कहा गया था लेकिन मैंने जिन जिन लोगों का नाम दिया था,उन सारे लोगों का नाम शामिल नहीं किया गया।तुम्हारा भी नाम दिया था मैंने.... मगर उन लोगों ने कट कर दिया तो क्या करूँ... सरकारी लोगों से संबंध बनाकर रखना पड़ता है।आज नहीं तो कल तुम्हारा नाम भी शामिल हो जाएगा....

खैर छोड़िए....अगले महीने हमें कहाँ ले चल रहे हैं....

तीन चार कार्यक्रमों की बात चल रही है....फाइनल होते ही बताता हूँ.....अच्छा मुझे कॉलेज के लिए देर हो रही है...इतमीनान से बाद में बात करते हैं- कहकर विवेक प्रकाश ने फोन रख दिया।

विवेक प्रकाश कानपुर के एक महाविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक थे।कवि सम्मेलनों की दुनिया में उनकी तूँती बोलती थी।स्वयं भले अच्छे कवि नहीं थे,लेकिन भीड़ से तालियाँ बजवाने की कला में माहिर थे।हिंदी,उर्दू के सभी महत्वपूर्ण कवियों की खास खास कविताएँ उन्हें याद थीं।कैसी भी जगह पर कवि सम्मेलन रखा गया हो,संचालन ऐसा करते थे कि महफिल जम जाती थी।

कवि सम्मेलनों के आयोजक ऐसे ही कवियों को ढ़ूँढ़ा करते हैं,जिन्हें अपने कार्यक्रम की बागडोर सौंपकर वे निश्चिंत हो जाएँ।कवि सम्मेलन में कहाँ कहाँ से कितने बड़े कवि आ रहे हैं,इससे महत्वपूर्ण होता है,इसका संचालन कौन कर रहा है।भीड़ की तालियाँ बजती हैं या नहीं, वंसमोर की आवाज होती है या नहीं।यही सब आयोजकों को स्पांसर और अगले कार्यक्रम देते हैं।विवेक प्रकाश इस लिहाज से एक सफल कवि थे।नवोदित कवि कवयित्रियाँ उनके पीछे पीछे लगे रहते थे।फिल्मकार यश चोपड़ा की तरह नये लड़कों को उन्होंने कभी भाव नहीं दिया।हाँ! कुछ लड़कियों को जरूर मौके दिए मगर पिछले तीस साल में कोई एक भी कवि सम्मेलनों की दुनिया में बनी नहीं रह सकी।

फिलहाल विवेक प्रकाश की उम्र पचपन साल है।दो वर्षों से वे रमणिका और सुमनिका से आँख मिचौली खेल रहे थे।दोनों को यह पता भी है लेकिन कवि सम्मेलनों में मिलनेवाली तालियों और लिफाफे के मोह में वे जानबूझकर अनजान बनी हुई थीं।दोनों को उनसे अच्छा कोई मिल भी नहीं रहा था।दोनों को खुद लिखने पढ़ने में कोई रुचि नहीं था।कवि सम्मेलनों में जमनेवाली चार छह कविताएँ विवेक प्रकाश ने दे रखी थीं,इससे ही उनका काम चल जाता था।दोनों अब विदेश यात्रा और सरकारी पुरस्कारों की जुगाड़ में थीं।इसके लिए किसी राजनीतिक हस्ती से घनिष्ठता की जरूरत थीं।दोनों किसी ऐसे शख्स की तलाश में थीं।

सुमनिका की तलाश पूरी हो चुकी थी।नई सरकार बनने के बाद संयोग से राजधानी में एक ऐसे राज्यपाल आए थे जो न सिर्फ स्वयं कविताएँ लिखते थे बल्कि पसंदीदा कवि और कवयित्रियों को विदेश यात्रा पर ले जाने के लिए कुख्यात भी थे।कुख्यात इसलिए कि उनके साथ जानेवाले अधिकतर कवि कवयित्रियाँ बहुत सामान्य स्तर के होते थे। न तो समय और समाज के दबावों पर उनकी कोई पकड़ होती थी, न ही देश और राजनीति को दिशा दे पाने का उनमें कोई मौलिक चिंतन होता था।उनमें सिर्फ तीन तरह के लोग होते थे - आरोह अवरोह के साथ शेर पढ़नेवाले सुरीले कंठ के शायर,महबूब से रोमांस करनेवाली या उसके विरह में गीत गानेवाली कवयित्रियाँ या नारेबाजी करके देशभक्ति की कविताएँ पढ़नेवाले वीर रस के कवि।जिन कवियों की साहित्यिक प्रतिष्ठा होती थी,उनके आगे वे स्वयं को बौना महसूस करते थे,इसलिए उन्हें कभी बुलाते ही नहीं थे।

सुमनिका राज्यपाल महोदय से कवि सम्मेलन में मिल चुकी थी।अब राजभवन में मिलना जरूरी था।उसे पता था कि बिना घनिष्ठता हुए विदेश यात्रा मुश्किल है।उसने राजभवन में फोन किया।उसे अगले हफ्ते गुरूवार को मिलने का समय मिल गया।तय समय पर वह गवर्नर हाउस पहुँची।कठिन चेकिंग से गुजरने के बाद वह राजभवन के भीतर पहुँची।गवर्नर साहब सोफे पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे।सुमनिका ने उनका पाँव छूना चाहा।गवर्नर साहब ने कहा- यह क्या कर रही हो ....आओ गले मिलो.... वे सुमनिका को दो मिनट तक सीने से लगाये रहे,फिर कमर में हाथ लगाकर बगल में बिठा लिया।

अगले हफ्ते राज्यपाल के साथ विदेश जानेवाले कवियों की सूची प्रेस विज्ञप्ति के रूप में छपी तो विवेक प्रकाश हैरान रह गए।उन्होंने स्वयं के अलावा जो चार नाम दिये थे,वे तो थे लेकिन उनका ही नाम गायब था।लेकिन जैसे ही उन्होंने सूची में सुमनिका का नाम देखा,तुरत सारा मामला उनकी समझ में आ गया।उन्होंने अपना माथा पीट लिया।उन्हें तत्काल अपने प्रिय कवि तुलसीदास के दोहे की एक पंक्ति याद आ गयी....का नहिं अबला कर सके, का न समुद्र समाइ ।               
   
      
      


Tuesday, 31 July 2018


स्मृतिशेष नीरज

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फूलों के रंग से दिल के कलम से .......


रासबिहारी पाण्डेय

तन से भारी सांस है इसे समझ लो खूब।
मुर्दा जल में तैरता जिंदा जाता डूब।।

जैसे गंभीर दर्शन वाले दोहे लिखनेवाले नीरज ने यह भी लिखा -

ना तो वो काशी गये ना मुख बोले राम ।
नाम रखा किस मूढ़ ने उनका काशीराम ।।  जिसे पढ़ सुनकर आप हँसे बिना नह रह सकते।

उन्होंने ग़ज़ल को गीतिका नाम दिया और उसे पारंपरिक तरन्नुम से अलग तरन्नुम देकर कवि सम्मेलनों में खूब वाहवाही लूटी। उनके कुछ प्रयोगों को देखकर मैं चकित होता हूँ ….

सत्य झूठे हैं सभी सत्यकथाओं की तरह
वक्त बेशर्म है वेश्या के अदाओं की तरह।
……
लुटेरे डाकू भी खुद पे नाज करने लगे
उन्होंने आज जो संतों का आचरण देखा।
…..
जिसमें इंसान के दिल की धड़कन न हो नीरज
शायरी वो है अखबार के कतरन की तरह।

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' १९ दिसंबर १९९७ को मैंने मिर्जापुर में नीरज निशा का आयोजन किया था।वे अपने साथ एक और कवि अशोक हंगामा को लेकर पधारे।रुकने की व्यवस्था होटल गैलेक्सी में थी।पत्राचार में उनसे ६०००/पारिश्रमिक की बात हुई थी।मैं उन दिनों वहाँ केबी कॉलेज से एम ए कर रहा था , वे जब रूबरू मिले तो संयोजक के हिसाब से मैं उन्हें बच्चा लगा,उन्हें संदेह हुआ कि पता नहीं पैसा कवि सम्मेलन के बाद मिलेगा कि नहीं! उन्होंने कहाँ कहाँ पैसा नहीं मिला,इसके संस्मरण बताना शुरू किया।मिर्जापुर के आसपास की भी कोई जगह बताई और कहा कि संयोजक भाग गया तो लोकपति त्रिपाठी ने मार्गव्यय की व्यवस्था की।तब साथ बैठे गणेश गणेश गंभीर ने मुस्कुराते हुए कहा कि यहाँ ऐसा कुछ नहीं होगा सर ।नीरज जी ने मुझसे कहा कि मेरे लिए एक ह्विस्की ला दो।मेरा ह्विस्की खरीदने का कोई अनुभव नहीं था।मैंने कहा मुझे तो पता नहीं कहाँ मिलेगी ,फिर सम्हल कर कहा कि अच्छा मँगाता हूँ।एक अद्धा मँगाया गया।मैं व्यवस्था में इधर उधर ब्यस्त था।गणेश गंभीर नीरज जी के तकियाकलाम क्यों साहब का जवाब जी साहब में दे रहे थे और उनके मद्यपान का साक्षी बने हुए थे।बाद में एक कवि ने बताया कि अदम गोंडवी नेे उनसे निवेदन किया था- क्या दादा अकेले अकेले ? इस बात को उन्होंने अनसुना कर दिया। इस कार्यक्रम में अदम गोंडवी,सरिता शिवम,जगदीश पंथी,अनूप ओझा , गणेश गंभीर,लल्लू तिवारी ,सलिल पाण्डेय समेत अन्य कई कवियों ने शिरकत की।मेरी अनुभवहीनता की और कुछ मित्रों की साजिश की वजह से कार्यक्रम में  भीड़ नहीं हो पाई मगर नीरज जी ने उसे अपनी हार मानी और कहा कि आज कोई एमपी,एमेले आता तो पैर रखने की जगह नहीं होती और नीरज के नाम पर सिर्फ इतने कम लोग ……!  उन्होंने घड़ी देखकर कोई ४५ मिनट तक काव्य पाठ किया।

मेरे स्थानीय विरोधी लज्जित और शर्मिंदा हुए।मैंने जो कहा था,करके दिखाया।एक स्थानीय पत्रकार जो अपनी बीवी को नीरज के साथ कविता पढ़वाकर महान घोषित करने की कवायद में कई लोगों से अपनी सिफारिश मुझ तक पहुँचा चुके सहमति न मिलने पर कई लोगों से कार्यक्रम में नीरज के न आने की पुष्टि कर चुके थे।
नीरज जी को सुबह मैंने कालका मेल से रवाना किया।यह गाड़ी अलीगढ़ होकर दिल्ली जाती है।नीरज जील को थ्री टायर एसी में चलनेवाला टीसी प्लेटफार्म पर ही मिल गया।उसने सीट नंबर बताकर कहा कि वहाँ बैठिए ...में आता हूँ।नीरज जी ने अशोक हंगामा को अपना बैग थमा दिया ,वे दौड़कर स्लीपर में चढ़ गए।

मिर्जापुर के कार्यक्रम के बाद नीरज जी से मेरी टेलीफोन पर बातचीत होने लगी थी।शायद ३जनवरी १९९९ को ( तारीख गलत हो तो सर्वेश अास्थाना ठीक करें  ...)लखनऊ में नीरज जी की हीरक जयंती (७५वीं )मनायी जानी थी ।नीरज जी ने मुझसे टेलीफोन पर कहा कि मैंने तुम्हारे लिए सर्वेश से बोल दिया है।तुम उस दिन समय से आ जाना।उस तारीख से एक दिन पहले चुनार के आसपास कोई कवि सम्मेलन था जिसमें पूर्वांचल  के कई  कवि थे।श्रीकृष्ण तिवारी भी थे,जिन्हें लखनऊ नीरज जी के इस अभिनंदन में जाना था पर मुझे उनकी बातचीत से लग गया कि उन्हें अधिक धनराशि वाला कोई अन्य कार्यक्रम मिल गया है , इसलिए वे वहाँ नहीं जा रहे हैं।मंच पर जाने वालों लोगों के लिए यह सामान्य बात है ।मैं उस दिन सुबह बनारसी कवियों के साथ साथ बनारस पहुँचा और वहाँ से ट्रेन पकड़कर शाम को ५ बजे के आसपास लखनऊ पहुँचा।रवींद्रालय ( जहाँ कार्यक्रम रखा गया था) लखनऊ रेलवे स्टेशन के बिल्कुल पास  है।नीरज जी को सम्मानित करने तब मुलायम सिंह यादव पधारे थे।किसी कवि के साहस का नमूना मुझे उस दिन पहली बार देखने को मिला था।उस कवि ने (मैं नाम भूल रहा हूँ)मुलायम सिंह को बार बार संबोधित करते हुए एक लंबी कविता पढ़ी थी जिसमें प्रतीकात्मक रूप से उनकी कमियाँ गिनाई थीं ।एक पंक्ति कुछ यूँ थी -
पहले तो थोड़ा ही जल मटमैला था ,
तुमने पूरी नदी विषैली कर डाली !

उस कवि का बाद में क्या हुआ ,मुझे पता नहीं !लेकिन ऐसी ही कविता सुनाने पर एक समय में मुलायम सिंह यादव ने वीर रस के कवि नरेश कात्यायन को बर्खास्त करा दिया था।कविवर ने बहुत कोर्ट कचहरी का चक्कर लगाया तो दुबारा बहाल हुए।

कृष्ण बिहारी नूर को मैंने वहाँ दूसरी बार सुना।डॉ.सुरेश ,शिवओम अंबर ,मुकुल महान ,प्रमोद तिवारी समेत दस कवि रहे होंगे।बहुत शानदार कवि सम्मेलन हुआ।रात में रुकने की ब्यवस्था सरकारी गेस्ट हाउस में थी।दूसरे दिन सुबह उठकर जब मैं नीरज जी के कमरे में गया तो देखा कि कुछ स्थानीय पत्रकार उनसे बातें कर रहे हैं।नीरज जी जिस कवि सम्मेलन में भी जाते थे उनके इंटरव्यू के लिए आए कुछ पत्रकारों को मैंने हर बार देखा।ऐसा मंच के किसी अन्य कवि के साथ होते नहीं देखा।फिल्मों से मिली अपार लोकप्रियता और उनके प्रति जनता की दीवानगी की यह एक मिसाल थी।दूसरे दिन अमेठी में डॉ़. सुरेश ने उनके सम्मान में कवि सम्मेलन रखा था।नीरज जी मुझे वहाँ भी ले गए।यह कार्यक्रम भी खूब जमा।डॉ.सुरेश के गीतों को भी खूब सराहा गया।नीरज जी को उन्हीं के बाद पढ़ना था।मुस्कुराते हुए बोले - मैं तो नर्वस हो रहा हूँ,तुमने इतने अच्छे अच्छे गीत सुना दिए …..!

कुछ दिनों बाद नीरज जी रावर्ट्सगंज मधुरिमा संस्था के कार्यक्रम में पधारे।उस कवि सम्मेलन में मैं भी आमंत्रित था।नीरज जी ने अपनी प्रसिद्ध ग़ज़ल सुनायी -

खुशबू सी आ रही है इधर जाफरान की,
खिड़की खुली हुई है उनके मकान की।

चकाचक बनारसी ने उसकी पैरोडी सुनायी-

बदबू सी आ रही है इधर नाबदान की
नीरज को महक लग रही है जाफरान की।

भीड़ को तो आनंद से मतलब है।क्या सम्मान,क्या अपमान ….क्या गीत ग़ज़ल,क्या पैरोडी .........…!.सर्वविदित है कि नीरज से अधिक पैसे सुरेंद्र शर्मा और उनसे भी बहुत अधिक जूनियर लोग लेते रहे हैं।जाने क्यों नीरज जी ने अपना पेमेंट बहुत अधिक नहीं किया।अपने दौर के सफलतम कवि नीरज को नयी सदी में कई सारे मंचों पर बहुत कम सुना भी गया।श्रोताओं के ठंडे उत्साह की वजह से नीरज स्वयं भी कहीं कहीं दस पंद्रह मिनट में ही कविता सुनाकर बैठ गये।

१९९९ के जून महीने से मैं मुंबई रहने लगा था।अगस्त में मैंने एक दिन यहाँ से उनके घर अलीगढ़ फोन किया तो पता चला कि नीरज जी देव आनंद की फिल्म सेंसर के लिए गीत लिखने मुंबई आए हुए हैं।मैंने देव आनंद के ऑफिस में फोन किया तो पता चला कि वे बांद्रा के लकी होटल में रुके हैं।मैंने लकी होटल में फोन किया तो उन्होंने अगले दिन मिलने के लिए कहा।अगले दिन मैं  उनके पास पहुँचा ….उस समय कारगिल युद्ध चल रहा था।नीरज जी ने कहा - तुमने आज का अखबार देखा .........पाकिस्तान ने युद्ध में मारे गए अपने सैनिकों को पहचानने से इनकार कर दिया तो भारत के सैनिकों ने उन्हें दफन किया।फिर देर तक विभिन्न विषयों पर बातें होती रहीं।उन्होंने पूछा -सिर्फ घूमने आए हो या रहने के लिए।मैंने कहा - यहीं रहने का इरादा है।वे बोले - मुंबई में कला की सबसे ज्यादे इज्जत है।जो यहाँ ठान के आते हैं,वही रहते हैं।जो सिर्फ ट्राई करने के लिए आते हैं,वापस चले जाते हैं।फिर बोले- चलो कल देव आनंद से मिलवाता हूँ।

अगले दिन अपने साथ वे मुझे देव आनंद के पाली हिल स्थित बँगले पर ले गए।उन्होंने कहा - जाते ही पाँव छूना और चाय पीकर निकल लेना।अपनी तरफ के लोगों का मामला हजरते दाग जहाँ बैठ गए,बैठ गए .”..जैसा होता है।

देव साहब शर्ट को गले तक आखरी बटन बंद किए हुए अपनी खास टोपी लगाये बैठे हुए थे।मैंने पाँव छुये तो बोले - बैठिए बैठिए वेलकम।नीरज जी ने मेरा परिचय दिया ।देव साहब मुझसे मेरी पढ़ाई लिखाई और मुंबई आने के बारे में बातें करने लगे।चाय पीने के बाद मैं निकलने लगा तो बोले - क्यों साहब इतना जल्दी क्यों चल दिए.... कुछ माइंड तो नहीं किए?मैंने कहा - नहीं।वे बोले - कल अंपायर स्टूडियो में हमारे गाने की रिकार्डिंग में आइए।नीरज जी के गीत सुनिए।मैंने कहा - जरूर।दूसरे दिन मैं वीरा देसाई स्थित अंपायर स्टूडियो दोपहर के वक्त पहुँचा।(यह स्टूडियो यूसुफ लकड़ावाला का है जो सुनील दत्त से लेकर आज के युवा फिल्मकार इम्तियाज अली तक को फिल्म निर्माण में फाइनेंस करते रहे हैं।बहुत बाद में उनसे देवमणि पाण्डेय के साथ एक बार  मिलने का संयोग बना।) फिल्म सेंसर के संगीतकार जतिन ललित उस समय वायलिन रिकॉर्ड कर रहे थे।करीब तीस पैंतीस वायलिन प्लेयर एक साथ वायलिन बजा रहे थे।अब तो वह दौर ही चला गया,लोग मैक्सिमम काम कंप्यूटर जेनरेटेड म्यूजिक से ले रहे हैं।

नीरज जी ने मेरे लिए तब मुंबई में दो लोगों को खासतौर पर फोन किया - शैल चतुर्वेदी और आसकरन अटल ।शैल जी तब बीमारी के कारण उतने सक्रिय नहीं रह गए थे।आसकरन अटल ने मुझे कई जगह इंट्रोड्यूस किया और अब भी उनसे मेरा स्नेह संबंध बना हुआ है।
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उस मुलाकात के बाद मुंबई में नीरज जी से  कई और मुलाकातें हुईं।एक बार मुंबई के चीरा बाजार स्थित शारदा होटल में मैं उनसे मिलने पहुँचा।दोपहर का वक्त था।नीरज जी के साथ गोविंद व्यास और प्रदीप चौबे  बैठे थे ।ये लोग ताश खेलने के मूड में थे।नीरज जी ने मुझसे कहा - आओ तुम भी बैठ जाओ।मैंने कहा - मैं तो ताश खेलना नहीं जानता ….तो बैठे रहो- उन्होंने कहा।उस दिन मुझे उनके साथ ताश न खेल पाने का बहुत अफसोस हुआ।भिन्न भिन्न मुलाकातों में मैंने उनसे कई इंटरव्यू किए जो कई पत्र पत्रिकाओं और मेरी साक्षात्कार पुस्तक चेहरे में प्रकाशित हैं।एक बार औपचारिक बातचीत में  उन्होंने कहा - मेरा आधा जीवन लड़कियों के पत्रों का उत्तर देने और ट्रेनों से यात्रा करने में चला गया,वर्ना और अधिक  काम कर पाता!

मैंने मुंबई से जब अनुष्का पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया तो उन्होंने रचनाएँ भेजी।उनसे आखरी मुलाकात दो साल पहले तब हुई थी जब वे सब टीवी के वाह वाह क्या बात है कार्यक्रम की शूटिंग के लिए आए थे।मैं और लखनऊ की सुख्यात कवयित्री लता श्री उनसे मिलने गए थे।औपचारिक बातचीत के बाद उन्होंने मुझसे मुंबई के वरिष्ठ कवि लोचन सक्सेना के बारे में पूछा - उसे क्या हुआ था ,कैसे मरा? मैंने बताया जो मुझे पता था …..लोचन हमारे बहुत करीबी दोस्त थे।उनकी यादों को दुहराकर दुबारा उस पीड़ा से गुजरना नहीं चाहता।बाइस तेइस साल की उम्र में जब  साहित्य की दुनिया में  सक्रिय हुआ तो  पचास.. साठ ...सत्तर  साल के लोगों से परिचय और दोस्ती शुरू हुई।अब अक्सर उनमें से किसी के मृत्यु की सूचना मिलती है,मन अवसाद से भर जाता है।उनके बारे में लिखते हुए दुहरी पीड़ा झेलनी होती है।

 

Thursday, 28 June 2018

कहानी / शार्टकट


कहानी

शार्टकट

रासबिहारी पाण्डेय


आज एक कार्यक्रम में एक साल बाद मोहिनी से मुलाकात हुई है। परिचय तो पाँच वर्ष पुराना है पर मुलाकातें बहुत कम थीं उससे। वह जब भी मिलती, बड़े ख़ुलूस और अपनेपन के साथ। देखते ही बोली- चलिए सर, आज मैं आप को लिफ्ट दे देती हूंl यह काम तो हम पुरुषों का है। महिलाएं इस क्षेत्र में भी अतिक्रमण करने लगीं। मैंने मुस्कुराते हुए कहा तो उसने बड़े रोबीले अंदाज में कहा- आज महिलाएं किस क्षेत्र में पुरुषों से पीछे रह गई हैं। हर क्षेत्र में टक्कर दे रही हैं।अगर पुरुषों से लिफ्ट ले सकती हैं, तो दे क्यों नहीं सकतीं..... कहते हुए वह अपनी कार की ड्राइविंग सीट पर बैठ गई। मंत्र विद्ध मैं भी उसके बगल में जा बैठा। ट्रैफिक की शोर की वजह से मैं खामोश बैठा था। उससे रहा नहीं गया। बोली -आप संकोची बहुत हैं, यह काम तो हम महिलाओं का है, इस क्षेत्र में भी अतिक्रमण....! संकोची नहीं गंभीर कहो.. मैं हंस पड़ा।

 चार कहानी-संग्रह आ चुके हैं आपके.... कहानियां ही लिखते रहेंगे, उपन्यास की ओर जाने का इरादा नहीं है?
 लिख तो रहा हूं ...देखो कब तक पूरा होता है।
 अच्छा यह बात है.... काम शुरू है.... अग्रिम बधाई...... और बताइए आपके बीवी बच्चे कैसे हैं? आपने कभी मिलवाया नहीं। किसी दिन उन्हें लेकर घर आइए।
तुम्हारा आमंत्रण सर आंखों पर ....वैसे किसी दिन अपने पतिदेव के साथ तुम भी हमारे गरीबखाने पर आ सकती हो।
 हमारे पतिदेव तो बस नाम के पतिदेव हैं। उनको तो अपने काम से फुर्सत ही नहीं रहती।
 बीवी के लिए भी फुर्सत नहीं रहती?
 एक बीवी हो तो फुर्सत निकालें ......इतना खुला जवाब सुनकर में चौंका। क्या दो शादियां कर रखी हैं ?
अरे सर....बीवी का सुख पाने के लिए शादी करना जरूरी है क्या? मेरे पतिदेव एक मल्टीनेशनल कंपनी में हैं। साल का तीस लाख का पैकेज है। मुंबई से बाहर जाते रहते हैं। इसलिए बाहर सारी व्यवस्था भी रखते हैं।
तो क्या कई महिलाओं से संबंध है उनके?
 हां दो को तो मैं खुद जानती हूं कभी विरोध नहीं किया आपने। 
विरोध करके कितनी बार पिटूँ?  कहते हुए उसने कुछ जख्मों के निशान दिखाए और कहा- अंदरूनी जख्म कैसे दिखाऊं जो बदन ही नहीं मन पर भी लगे हैं। घर के लोग कहते हैं कि चाहे कुछ भी करता है। पत्नी के रूप में तो तुम ही जानी जाती हो...

...तो क्या तुमको बिल्कुल समय नहीं देते? रात को दो बजे तक सिर्फ सोने के लिए घर आते हैं। जब कभी अपना मन हुआ तो देह से खेल लेते हैं, वरना फिर सुबह ऑफिस के लिए रवाना हो जाते हैं।मैं भी ग्यारह बजते बजते कॉलेज के लिए निकल जाती हूँ। लौटते-लौटते छह बज जाते हैं। घर आकर थोड़ा आराम करती हूं,फिर टीवी के सीरियल और न्यूज़ चैनलों में खो जाती हूं।
 एक बच्चा भी है न तुम्हें....
 उसे तो हॉस्टल में डाल दिया। जब तक वह था, मन बहल जाता था। अब तो कभी-कभी बहुत डिप्रेशन होता है।
तुम तो कार्यक्रमों में भी आती जाती रहती हो...
बहुत कम जगहों पर जा पाती हूं। परिचय बहुत कम लोगों से है। घर चलिए। एक कप चाय पीकर निकल जाइएगा...
अभी हमलोगों ने कार्यक्रम में चाय पी तो थी। तलब महसूस नहीं हो रही है। किसी और दिन आता हूं...
छोड़िए भी मेरे हाथ की बनी चाय नहीं पीना चाहेंगे.....
लोग मुझसे फोन करके पूछते हैं कि आपके यहां चाय पीने कब आएं और आप हैं कि सामने से ऑफर ठुकरा रहे हैं! आधे घंटे में क्या बनने बिगड़ने वाला है।

 उसके इसरार के आगे मुझे झुकना पड़ा। उसने कार पार्किंग में खड़ी कर दी। घर आकर देखता हूं तो पत्र-पत्रिकाओं किताबों के साथ ढेर सारे ऑडियो वीडियो सीडी कैसेट... बड़े सलीके से रखा म्यूजिक सिस्टम... होम थिएटर, पलंग, टेबल ,फर्नीचर,सब कुछ बहुत सुव्यवस्थित.... कहीं से ऐसा नहीं लगा कि यह किसी उदास और हताश मन वाली औरत का बसेरा होगा। फ्रीज से ठंडा पानी और बिस्किट देने के बाद वह किचन में घुसी और बहुत जल्द चाय टेबल पर रखी हुई थी।वह एक बार फिर उदास होते हुए बोली- सौभाग्यशाली हैं आप ! घर जाते ही बीवी, बच्चों से घुल मिल जाएंगे। उदासी का कोई नामोनिशान नहीं होगा। पता नहीं मैंने पिछले जन्म में कौन से पाप किए थे, जिसकी सजा इस जन्म में भुगतनी पड़ रही है। 
अरे अच्छा घर, अच्छी नौकरी, अमीर पति, सब तो हैं  ....और किस चीज की तलाश है तुम्हें?
घर, नौकरी और पति का होना ही सुख की गारंटी होता तो हर रोज सैकड़ों तलाक नहीं होते। जीवन में सबसे जरूरी है मन का सुकून और सुकून के लिए चाहिए किसी का प्यार... किसी का अपनापन.... जीने का कोई मकसद....
तुम तो किसी मँजी हुई लेखिका की तरह बातें कर रही हो.... लिखने की शुरुआत क्यों नहीं करती? मन जरा कहीं ठहरे तो फिर से लिखना शुरू करूं... पहले का तो बहुत सारा लिखा हुआ पड़ा है, मगर ठिकाने से रहे तो कुछ करूं। जीवन का खालीपन किसी स्वीट प्वाइजन की तरह होता है। धीरे-धीरे मौत की तरफ ले जाता है।
अगर इतना परेशान हो तो तलाक क्यों नहीं ले लेतीं।
तलाक लेने से पहले कोई दूसरा विकल्प तो होना चाहिए.... इतनी बड़ी जिंदगी अकेले तो नहीं काटी जा सकती और फिर इस उम्र में दूसरा कौन मिलेगा मुझे?
दुनिया में सिर्फ पुरुषों से प्रताड़ित होने वाली महिलाएं ही नहीं हैं, महिलाओं से प्रताड़ित पुरुष भी हैं। तलाश करो ...कोई मिल ही जाएगा।
देखिए किस्मत में क्या लिखा है।
वह रुआंसा हो गई।मैं बड़े भारी मन से घर लौटा।उससे काफी सहानुभूति हो रही थी। उसके पति के पति के प्रति क्षोभ से मन भर गया। मैंने निश्चय किया- जितना संभव हुआ उसकी मदद करूंगा। अब फोन पर उससे लंबी बातें होने लगी थीं। कई पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और कवि लेखकों से मैंने उसे मिलवाया। कई संस्थाओं ने मेरे आग्रह पर अपने कार्यक्रमों में भी उसे निमंत्रित किया, हालांकि उसका परचा भी मुझे ही लिखना पड़ता। मेहनत से वह दूर भागती थी। उसकी रुझान सिद्ध होने से कहीं अधिक प्रसिद्ध होने में थी। उसके परिचय का दायरा बढ़ता गया। साल बीतते बीतते उसने मुझसे अपनी उदासी और हताशा का जिक्र करना बंद कर दिया। मुझे खुशी हो रही थी कि मैं उसके कुछ काम आ पाया।अपनी अन्य व्यस्तताओं की वजह से अब मैं उसे समय नहीं दे पा रहा था। नए संपर्कों को प्रगाढ़ करने के क्रम में धीरे-धीरे वह वह भी मुझसे कटने लगी और अपनी तरफ से फोन करना बंद कर दिया। इस बीच कई बार समय तय करके भी वह घर नहीं आई। मगर मेरे माध्यम से कोई अवसर मिलना होता तो जरूर मिलती या किसी विषय पर कोई रेफरेंस चाहिए होता तो फोन पर लंबी बात भी कर लेती लेकिन बिना वजह मिलने-जुलने या बात करने में उसकी कोई रुचि नहीं रह गई थी।पहले जो अपनापन दिखाने का भाव था,वह कपूर की तरह उड़ गया था।

अचानक उसमें आए इस परिवर्तन से मैं चकित था।जब कभी मैं उससे इस बारे में पूछता तो उसका जवाब होता कॉलेज में कुछ नई जिम्मेदारियां बढ़ गई हैं, इसलिए बहुत बिजी हो गई हूँ।मैं कहीं भी आ जा नहीं पा रही हूं।हालांकि मुझे औरों से पता चलता रहता था कि कल वहां थी, परसो वहां थी, अगले महीने की इन इन तारीखों में वह शहर से बाहर जा रही है।

उसे प्रोमोट करने में कई लोग लगे थे। एक ठीक-ठाक दायरा बना लिया था उसने। पत्रकारों को खाने पर घर बुलाकर वह गिफ्ट प्रेजेंट करने लगी थी।बदले में वे लोग रिपोर्टिंग में उसके नाम के साथ वक्तव्य की तीन चार पंक्तियां भी देने लगे थे। कार्यक्रमों में आते जाते एक अधेड़ उम्र का पूंजीपति उस पर बुरी तरह फिदा हो गया था। लौटते वक्त वह अक्सर अपनी कार में कुछ लोगों को लिफ्ट दिया करता था। इसी क्रम में मोहिनी के रूप और यौवन पर कुछ इस तरह फिदा हुआ कि अपनी ही गाड़ी में उसका ड्राइवर बन बैठा। अब मोहिनी को अपनी कार निकालने की जरूरत नहीं पड़ती थी। मामा भानजी का बड़ा महफूज सा रिश्ता भी गाँठ लिया था दोनों ने.... मेरे मित्र इस जोड़ी के बारे में खुलकर बातें करते.. फिर कहते आपने बहुत संभावनाशील बनाकर प्रस्तुत किया था, अब देखिए उसका विकास...सबका साथ सबका विकास....हा हा हा...
 मैं जिसे शोषित और पीड़ित समझ रहा था,उसका यह रुप देख कर हैरान था।एक दिन ऐसा संयोग बना कि मोहिनी और मैं दोनों ही एक सेमिनार में साथ थे। कार्यक्रम खत्म होने से पहले ही वह मामाजी के साथ छूमंतर हो गई। कार्यक्रम की समाप्ति के बाद उसके कॉलेज के नवनियुक्त एक लेक्चरर महोदय मुझे बधाई देने के लिए मिले। उनसे दो मर्तबा पहले भी मुलाकात हो चुकी थी। उन्होंने अपनी गाड़ी में चलने का प्रस्ताव रखा तो मैं मना नहीं कर सका। रास्ते में कार्यक्रम की चर्चा शुरू हुई तो मैंने कहा - मोहिनी ने भी अच्छा परचा पढ़ा। उन्होंने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे कह रहे हों कि किसका नाम ले लिया आपने लेकिन जो कानों से सुना वो यह था कि लगता है मोहिनी के बारे में आप बहुत कम जानते हैं। यह परचा उसका लिखा हुआ नहीं था। यह तो मिस्टर त्रिपाठी ने लिखा था उसके लिए। आजकल उसके परचे वही लिखा करते हैं। बदले में कभी कभार उनके साथ फिल्म देखने चली जाती है।मोहिनी जैसा अवसरवादी आपको ढूंढने से भी नहीं मिलेगा।हमेशा अपने औरत होने का फायदा उठाने की ताक में रहती है। पहले एक प्रोफेसर साहब को फंसाकर कॉलेज में नौकरी ली,फिर कॉलेज के ट्रस्टी को फँसाकर नौकरी को स्थायी करवाया।फिर एक बिल्डर को फँसाया ,उससे बहुत कम पैसों में एक फ्लैट लिया और अब परिचितों के बीच में हुई बदनामी की भरपाई साहित्य की दुनिया में नाम कमाकर करना चाहती है।

पर उसके पति तो बहुत अमीर हैं .... किसी मल्टीनेशनल कंपनी में....
 किसने कह दिया आपसे.... वह तो एक प्राइवेट फॉर्म में क्लर्क है। मोहिनी जब तक कॉलेज में नहीं थी और किराए के मकान में थी, मजबूरन साथ रहा करती थी। जैसे ही उसने अपना मकान खरीदा, पति को दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका।
लेकिन मैंने तो सुना कि वे उसकी उपेक्षा और मारपीट करते थे...
अपने प्रति सहानुभूति बटोरने के लिए यह कहानी वह हर नए आदमी को सुनाती है कि.... उसका पति शराबी है,व्यभिचारी है... अत्याचारी है, जबकि असल बात यह है कि इसने उसका जीवन नर्क बना दिया है। पैंतालीस की उम्र में उसकी शादी तो होने से रही। इसको तो खैर छत्तीस  मिल रहे हैं। नारी तो काठ की भी हो तो पुरुष खड़ा होकर एक नजर देखता है।
यह सब आपको कैसे पता....
हमारे कॉलेज में तो हरेक को इसकी कहानी पता है ,किसी से पूछ लीजिए.... यह सब सुनकर मेरी आंखें फटी रह गईं।कानों को बिल्कुल विश्वास नहीं हो रहा था कि मोहिनी ऐसा हो सकती है।
इत्तफाकन एक दिन चर्चगेट स्टेशन पर मेरे साथ एमए में पढ़ने वाली मेरी दोस्त निर्मला मिल गई। तय हुआ कि नरीमन पॉइंट समुद्र तट पर कुछ देर बैठा जाए।

 थोड़ी देर बाद क्या देखता हूं कि मोहिनी के गले में हाथ डाले उसके तथाकथित मामा जी चले आ रहे हैं। मोहिनी किसी बात पर हंसती जा रही है और मामाजी उसके गालों पर हल्की चपत लगाए जा रहे हैं। दोनों के नखरे बिल्कुल किशोर उम्र की प्रेमी-प्रेमिकाओं जैसे... हमारे बीच फासला इतना कम रह गया था कि न तो वह अपना रास्ता बदल सकती थी न ही मैं किसी दूसरी तरफ मुड़ सकता था। न चाहकर भी आंखें चार हो गईं। मुझे देखकर एक पल को वह अचकचाई लेकिन दूसरे ही पल सामान्य हो गई और इस अंदाज में आगे बढ़ गई जैसे मुझे जानती ही न हो। मुझे काटो तो खून नहीं। ऐसी कितनी जगहें जहां वह सिर्फ और सिर्फ मेरे कारण पहुंच पाई, जिसके लिए मैंने कितने परचे लिखे,दोस्तों और परिवार को दिया जानेवाला समय जिसे दिया,अपने काम अधूरे छोड़कर जिसके लिए कहीं और गया.... उसने मुझे पहचाना तक नहीं। मैं अपने आपको बहुत अपमानित महसूस कर रहा था।
निर्मला ने तंज किया- ऐसे क्या देख रहे हैं... इसे पहचानते हैं क्या....? 
क्या तुम इसको जानती हो ?
हां खूब जानती हूं.... मुझसे एक साल जूनियर थी इस्माइल युसूफ कॉलेज में। माँ सीधी साधी अनपढ़.... बाप ऑटो चलाता है।बेटी ने बिना कोई योग्यता हासिल किए बड़े-बड़े सपने पाल लिए। जब बीए कर रही थी, उसी समय एक फिल्म को ऑर्डिनेटर ने हीरोइन बनाने का झांसा देकर खूब घुमाया,मगर जब प्रेग्नेंट हो गई तो वह किराए का कमरा छोड़कर रफू चक्कर हो गया। इसने बहुतेरे प्रोड्यूसर  डायरेक्टरों के चक्कर लगाए।छह सात साल स्ट्रगल किया।कितनों से प्यार का नाटक किया और कइयों ने इससे प्यार का नाटक किया। लेकिन नाटक तो एक समय बाद खत्म ही हो जाता है। शादी के लिए तैयार ही नहीं हो रही थी। इससे दो छोटे भाई बहन और थे। उनका हवाला देकर मां बाप ने किसी तरह हाथ पैर जोड़कर राजी किया और एक क्लर्क से शादी कर दी। स्वच्छंद विचरण करने वाली परम महत्वाकांक्षी मोहिनी पिंजरे में कैद होकर कहां रहने वाली थी। बहुत जल्द घर में महाभारत होने लगा। बार-बार भागकर मायके चली आती थी।जब मां बाप ने भी दुत्कारना शुरू किया तो नौकरी करने की ठानी। इसके एक पुराने आशिक एक कॉलेज में थे।उन्होंने वहां कैजुअल लगवा दिया। वहां लगने के बाद उसने ट्रस्टी के साथ चक्कर चलाना शुरु कर दिया।जब आशिक महोदय ने ऐतराज किया और वहाँ से निकलवाने की धमकी दी तो झूठे आरोप लगवाकर इसने  उन्हें ही बाहर करवा दिया। अब महारानी आराम से वहां विराज रही हैं।
 मैं मन ही मन गुस्से से उबल पड़ा। इतना पतित है यह।मुझसे कोई काम पड़ा तो फिर से हँसते हुए सीधे घर चली आएगी।जो नमस्कार तक की औपचारिकता भूल गई,उससे आगे कोई संबंध क्या रखना...आज फोन पर ही इससे रिश्ता तोड़ लूंगा मैं।
 निर्मला से अलग होते ही मैंने मोहिनी को फोन किया।मेरा फोन रिसीव करते ही परम प्रसन्न हो जाने का दिखावा करने वाली मोहिनी आज एकदम सामान्य थी। मैंने कहा- तुम आज सामान्य शिष्टाचार भी भूल गई....वैसे तो कितनी बड़ी बड़ी बातें करती हो......
सर अगर हर एक रिश्ते को निभाती रहती तो मैं आज यहां तक नहीं पहुंचती.... मेरी कहानी तो निर्मला ने बता ही दी होगी आपको... निर्मला पहले मिल जाती तो शायद आप मेरी मदद न करते, मगर छोड़िए  मैं जो कुछ भी कर रही हूं, उससे आपका क्या नुकसान है, आपको क्या परेशानी है?

  तुम शायद यह कभी नहीं समझोगी  कि रिश्तो में सिर्फ फायदा और नुकसान नहीं देखा जाता क्योंकि तुमने रिश्तों और भावनाओं को ही व्यापार बना रखा है।

 प्यार के दो मीठे बोलों से पेट नहीं भरता सर। आपके पास और है क्या मुझे देने के लिए... जो आप कर सकते थे कर चुके। अब मैं आपकी परवाह क्यों करूँ.... मैंने भी कभी किसी से प्यार किया था। भावनाओं में बहकर अपना तन मन सब कुछ दे डाला था, मगर उस आदमी ने अपनी हवस की आग बुझाकर मुझे अकेला छोड़ दिया। उससे तो मैं बदला नहीं ले सकी, मगर उसका बदला मैं हर नए मर्द से लेती हूं। मुझे मर्द जात से नफरत हो गई है।

किसी एक ने धोखा दे दिया तो तुमने सारी पुरुष जात को ही खारिज कर दिया। शिक्षित होकर तुमने यही सीखा है।अगर वेश्यावृत्ति ही करनी थी तो इस पढ़ाई लिखाई का क्या मतलब है?  
 किस पढ़ाई-लिखाई की बात कर रहे हैं आप.... मेरे जैसे बहुत बीए,बीएड  घूम रहे हैं।मुट्ठी गरम किए बिना कोई नौकरी नहीं मिलती आजकल।
इसीलिए तुमने बिस्तर गर्म करने का रास्ता चुना
बिस्तर गर्म करने से देह नहीं जल जाती सर, मगर जब भूख लगती है तो अंतड़ियां सिकुड़ने लगती हैं। मैं जिस माहौल से निकली, अगर समझौते न करती तो जिंदगी भर घर में बैठे टसुए बहाती रहती। आपका अगला सवाल होगा कि मैंने अपने पति को क्यों छोड़ दिया- उसका भी जवाब सुन लीजिए। श्रीमान जी एक प्राइवेट फर्म में क्लर्क बन कर खुश हैं, इससे आगे उन्होंने कभी कुछ सोचा ही नहीं। पूरी जिंदगी मुझे अपने चरणों की दासी बना कर रखना चाहते थे। सिंपल हाउस वाइफ... उनके बच्चे पालूँ, उनके रिश्तेदारों और दोस्तों को डिनर कराऊं और इसी में अपना जीवन कुर्बान कर दूं ।मुझे नहीं करना था यह सब,छोड़ दिया इसीलिए। अगर उनके पदचिन्हों पर चलती तो यह घर, यह गाड़ी, ये ऐशोआराम नहीं होते मेरी जिंदगी में ।आप पतिव्रता की तलाश कर रहे हैं। आज के जमाने में एक ही पतिव्रता है- वेश्या। उसका पति सिर्फ पैसा है।मैंने जो कुछ किया पैसों के लिए ही किया।

वेश्या शब्द तुम्हारे लिए बहुत छोटा है। वेश्या भी अपने कुछ उसूल रखती है और जहां तक तुम वेश्या बनकर पहुंची हो,श्रम और योग्यता के सहारे भी पहुंच सकती थी, मगर तुम्हें शॉर्टकट चाहिए था। सफलता का क्या उदाहरण पेश कर रही हो तुम.... यही कि सही रास्ते पर चलकर सफलता नहीं मिलती।अपनी क्षुद्र महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए तुमने अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा दांव पर लगा दी और ऐसे खुश हो रही हो जैसे कोई बड़ा किला फतह कर लिया है ! अपने ऊपर पड़ने वाली उन निगाहों के बारे में कभी नहीं सोचा जो तुम्हारी करतूतें जानती हैं।हर सफल औरत को लोग यूं ही नहीं देखते, जैसे तुम्हें देखते हैं... कहते हुए मैंने फोन कट कर दिया।उसने अपनी ओर से कई बार फोन करके फिर से बात करने की कोशिश की,मगर मैंने फोन नहीं उठाया....रहिमन बिगड़े दूध को मथे न माखन होय।