कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
अनुष्का द्वारा आयोजित की गई “ एक शाम निदा के नाम ’’
हर नया शायर आठ दस साल बने बनाये रास्ते पर चलता है उसके बाद खुद को अलग कर पाता है, मगर निदा साहब की ख़ासियत यह थी कि अपनी पहली किताब की पहली नज़्म से ही वे अलग मालूम होते हैं। उनकी भाषा न ख़ालिस हिंदी है न उर्दू। मीर-ग़ालिब और कबीर-ख़ुसरो दोनों की परंपरा के शेर वे कहते थे। साहित्यिक पत्रिका अनुष्का द्वारा मौलाना आजाद हॉल, सांताक्रुज में मरहूम शायर निदा फ़ाज़ली की याद में आयोजित कार्यक्रम ये विचार उर्दू के वरिष्ठ शायर अब्दुल अहद साज़ ने व्यक्त किये।
शायर उबेद आज़म आज़मी ने निदा साहब के लिए एक नज़्म पेश की-
एक फूल था ज़माने में जिसका निदा था नाम गुलशन में वो महक न रही, गुल नहीं रहा
जो सबकी बातें करते थे वो लब नहीं रहे
जो सबको जोड़े रखता था, वो पुल नहीं रहा
जो सबकी बातें करते थे वो लब नहीं रहे
जो सबको जोड़े रखता था, वो पुल नहीं रहा
हिंदी ग़ज़लकार देवमणि पाण्डेय ने निदा सा
हब के फ़न और शख्सियत के बारे में चंद अहम बातों का ज़िक्र करते हुए कहा कि उन्होंने ग़ज़ल के पूरे इतिहास को चंद मिसरों में बड़ी खूबसूरती के साथ बाँध दिया था-
हब के फ़न और शख्सियत के बारे में चंद अहम बातों का ज़िक्र करते हुए कहा कि उन्होंने ग़ज़ल के पूरे इतिहास को चंद मिसरों में बड़ी खूबसूरती के साथ बाँध दिया था-
"ग़ज़ल अरब के रेगिस्तान में इठलाई , ईरान के बागों में खिलखिलाई और वहाँ से चलकर जब निज़ामुद्दीन औलिया और अमीर ख़ुसरो के मुल्क हिन्दुस्तान में आयी तो उसके माथे पर ग़ज़ब का नूर था, उसके एक हाथ में गीता थी, दूसरे में क़ुरआन था और उसका नाम सेकुलर हिंदुस्तान था।"
अनुष्का के संपादक रासबिहारी पांडेय ने कहा कि निदा साहब कबीर की तरह अपनी रचनाओं के ज़रिये सामाजिक हस्तक्षेप रखते थे। उन्होंने धार्मिक आडंबरों के ख़िलाफ़ खुलकर लिखा। ज़माने प्रति अपना असंतोष उन्होने कुछ यूँ जाहिर किया-
कोई हिंदू , कोई मुसलिम, कोई ईसाई है
सबने इंसान न बनने की क़सम खाई है
सबने इंसान न बनने की क़सम खाई है
कवयित्री दीप्ति मिश्र ने निदा साहब को याद करते हुए कहा कि एक बड़े शायर , कलंदर शख्सियत और बेलौस दोस्त का यूँ चले जाना भीतर कहीं ख़ला छोड़ गया है मगर उनके ही शब्दों में -
"तेरा हिज्र मेरा नसीब है, तेरा ग़म ही मेरी हयात है
मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों तू कहीं भी हो मेरे पास है
मुझे तेरी दूरी का ग़म हो क्यों तू कहीं भी हो मेरे पास है
सिने गीतकार विजय अकेला ने कहा कि ऐसा लगता है कि वे भोपाल , पटना या दुबई किसी मुशायरे के सिलसिले में गए हैं और आज कल में वापस आ जाएँगे मगर निदा फ़ाज़ली अब फिर नहीं आने वाले। निदा साहब का एक फ़िल्म गीत ही उनके नाम करता हूँ -
तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है
जहाँ भी जाऊँ ये लगता है तेरी महफ़िल है
जहाँ भी जाऊँ ये लगता है तेरी महफ़िल है
शायर हस्तीमल हस्ती ने कहा कि काव्या के 25वें अंक का संपादन निदा फ़ाज़ली ने किया था और मेरी किताब के प्रकाशन के लिए भी वाणी प्रकाशन से उन्होंने अनरोध किया। मेरे प्रति उनका विशेष प्रेम था मगर मैं बराबर उनसे संकोचपूर्वक मिलता रहा।
कवि अमर त्रिपाठी एवं शायर इमरोज़ आलम ने भी निदा फ़ाज़ली को अपने संस्मरणों के ज़रिये याद किया। अंत में गायिका सुनीता वर्मा ने शायर निदा फ़ाज़ली का एक कलाम पेश किया -
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता कहीं ज़मीं तो कहीं आस्मां नहीं मिलता
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