।।साक्षात्कार।।
फिलहाल कला व्यवसाय
के पीछे चल रही है - दिलीप शुक्ला
अंदाज अपना
अपना,मोहरा,घायल,दामिनी,जिद्दी,बिच्छू और दबंग जैसी सुपरहिट फिल्मों के लेखक
दिलीप शुक्ला ने प्रोड्यूसर डायरेक्टर के
रूप में अपनी दूसरी पारी की शुरुआत की है।“कारीगर” बैनर के तले उनकी पहली फिल्म मैं उत्तरा
नारायण पाठक शीघ्र ही फ्लोर पर जाने वाली है।पिछले दिनों उनसे अंधेरी स्थित
उनके कार्यालय में मुलाकात हुई।प्रस्तुत है
उनसे बातचीत का एक संक्षिप्त अंश-
“व्यस्तता तो आजीवन लगी ही रहेगी।बहुत दिनों से यह
सोच रहा था कि अपने सब्जेक्ट को अपने मन मुताबिक बनाऊँ।सुबह से शाम तक हम कहानियां
डिस्कस करते हैं लेकिन फिल्म बनते बनते लेखक के रूप में फिल्म पर हमारा पूरा नियंत्रण
नहीं रह पाता।निर्माता बनकर उन अनुभवों से गुजरने की ख्वाहिश है।पूरा काम अपने बस
में हो तो किस तरह के नतीजे आते हैं ,यह देखने जानने में दिलचस्पी है। मुझे विश्वास है कि यह फिल्म मेरी क्षमताओं को और
खोलेगी।
“ हिंदी सिनेमा जगत
में फिलहाल रीमेक की बाढ़ सी आ गई है।सिर्फ विदेशी ही नहीं भारतीय भाषाओं में बनी
हिट फिल्मों का रीमेक भी धड़ल्ले से हो रहा है। मूल कहानियों से ज्यादे दिलचस्पी
रीमेक में लेने की वजह ?”
रीमेक फिल्मों में
प्रोड्यूसर खुद को सुरक्षित महसूस करता है।कहानी,लोकेसन,स्टार सब कुछ दिख रहा होता
है।उसे बनाना आसान होता है,समय कम लगता है।नई कहानी में स्क्रीन प्ले डायलॉग के
लिए पूरा समय चाहिए, साथ ही स्टार को कन्विंस करना पड़ता है ।ओरिजनल कहानी को जज
करना भी मुश्किल होता है।हालांकि यह बात अलग है कि हिस्ट्री वही फिल्में क्रिएट
करती हैं जो ओरिजनल कहानियों पर बनती हैं ।रीमेक फिल्मों ने कोई इतिहास रचा हो,ऐसा
देखने में नहीं आया।
“मूल कहानियों में भी अधिकतर कहानियां काल्पनिक
होती हैं,उनका सच्चाई से कोई खास नाता नहीं होता ?”
फिल्म बनाते समय
उसमें मनोरंजन के सारे रंग भरने की कोशिश होती है ताकि लोग उसे पसंद करें और फिल्म
व्यवसायिक रूप से सफल हो।सत्य घटना का चुनाव करने पर हाथ बँध जाते हैं ,पूरी
फ्रीडम नहीं रहती।इसलिए ऐसी फिल्में बहुत कम बन पाती हैं।आज का दौर पूरी तरह बदल
चुका है।फिलहाल कला व्यवसाय के पीछे चल रही है।अगर पिछली कोई फिल्म गालियों की वजह
से हिट हो गई है तो निर्माता चाहता है कि वह भी कुछ ऐसे सीन रखे जिनमें गालियां
हों। कोई खास तरह का म्यूजिक चल जाता है तो उसी तरह का प्रयोग अगली फिल्म में भी
होने लगता है।आज तो फिल्मों को प्रोमोट करने के लिए बाकायदा मार्केटिंग
डिपार्टमेंट बनाया गया है जिसके मशवरे का असर फिल्म निर्माण पर पड़ना ही है।
“ एक जमाने में आर्ट सिनेमा का बड़ा शोर था, क्या वह दौर चला गया ? “
व्यवसाय को पूरी तरह
केंद्र में न रखकर किसी विषय के साथ पूरा न्याय किया जाय तो उसे आर्ट सिनेमा कहते
हैं ।आज भी वैसी फिल्में बन तो रही हैं मगर बहुत कम लोगों की दिलचस्पी है उनमें।तमाम
लोग तो इसी कोशिश में रहते हैं कि हमारी फिल्म 100 करोड़ के क्लब में शामिल हो।
“फिल्म लेखकों को फिल्म इंडस्ट्री में आज भी वह दर्जा हासिल नहीं है जिसके वे हकदार हैं, वह चाहे एवार्ड फंक्शन हों या दूसरे जॉनर ?”
फिल्म चेहरों का
माध्यम है।जो परदे पर दिखते हैं,उनकी अहमियत ज्यादे होती है।मीडिया के लोग लेखक का
महत्व जानते हैं ,लेकिन मुहूर्त से लेकर प्रीमियर तक तमाम जगहों पर वे भी स्टार्स
के ही आस पास होते हैं ।किसी कैमरामैन दूसरे टेक्नीशियन या लेखक का इंटरव्यू नहीं
कर रहे होते हैं।सिनेमा स्टार की ही वजह से बड़ा बनता है,इसलिए दूसरे लोगों का
पीछे हो जाना स्वाभाविक है।
“आपकी लिखी अगली फिल्म कौन सी है?”
शाद अली के निर्देशन
में चाँद भाई आएगी।मुख्य भूमिका में अमिताभ बच्चन हों अंदाज अपना अपना और दबंग का सीक्वल भी लिख रहा हूँ।
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