रविवार, 25 सितंबर 2022
जयशंकर प्रसाद की कुछ अनोखी बातें ............
मुंबई से बनारस के लिए दो गाड़ियां हिंदी साहित्य की दो अमर कृतियों के नाम पर हैं, एक है- गोदान, जिसके लेखक प्रेमचंद हैं और दूसरी है- कामायनी, जिसके लेखक हैं जयशंकर प्रसाद। हिंदी आलोचना जगत में प्रेमचंद की तुलना में जयशंकर प्रसाद की कम चर्चा हुई है जबकि जयशंकर प्रसाद का साहित्यिक अवदान प्रेमचंद से किसी तरह उन्नीस नहीं बल्कि कथा उपन्यास के साथ-साथ कई नाटकों के प्रणयनऔर कामायनी जैसी अमर काव्य कृति के चलते बीस ही ठहरता है। इस कमी को एक हद तक पूरी करती है हाल ही में रजा फाउंडेशन से प्रकाशित सत्यदेव त्रिपाठी लिखित जयशंकर प्रसाद की जीवनी 'अवसाद का आनंद'।
इसमें जयशंकर प्रसाद के व्यक्तित्व कृतित्व के साथ-साथ जीवन के ढेर सारे उन पहलुओं की भी चर्चा की गई है जिससे अधिकांश हिंदी पाठक अनजान हैं। उनमें से कुछ घटनाओं का जिक्र करना समीचीन होगा।
जयशंकर प्रसाद ने अपनी किसी भी पुस्तक की भूमिका किसी समकालीन या पूर्ववर्ती रचनाकार से नहीं लिखवाई और बहुत चिरौरी मिनती के बावजूद आजीवन स्वयं भी किसी अन्य कवि लेखक के पुस्तक की भूमिका नहीं लिखी। वे कवि सम्मेलनों में जाने से कतराते थे। गोष्ठियों में भी जब तक उनके आत्मीय लोग नहीं होते थे, वे कविता पाठ से बचते थे। प्रेमचंद द्वारा निकाली गई पत्रिका हंस का नामकरण उन्होंने ही किया था।
महादेवी वर्मा प्रसाद की कविताओं से इतनी प्रभावित थीं कि बगैर पता ठिकाना लिए इस उम्मीद से बनारस जा पहुंची कि प्रसाद जी इतने बड़े कवि हैं, कोई न कोई उनका पता बता ही देगा लेकिन बनारस स्टेशन पर आने के बाद उन्हें बहुत निराशा हाथ लगी। कई लोगों से पूछने के बावजूद उन्हें प्रसाद जी का पता हासिल न हो सका । एक तांगे वाला प्रसाद जी की कविताएं सुन चुका था जो उन्हें सुंघनी साहू के नाम से जानता था।उसने महादेवी जी से कहा कि हमारे सुंघनी साहू बहुत अच्छी कविता करते हैं(प्रसाद जी सुंघनी साहू के वंशज थे,इसलिए कुछ लोग उन्हें भी इसी नाम से जानते थे),मुझे लगता है आप उन्हें ही ढूंढ रही हैं। महादेवी जी उसके साथ गईं और प्रसाद जी से मुलाकात हो गई।
प्रसाद जी प्रतिदिन श्रीमद्भगवद्गीता के संपूर्ण पाठ के बाद ही अन्न जल ग्रहण करते थे।
शिवरात्रि के दिन वे पूरी आस्था के साथ व्रत रखते हुए शिव पूजा में समय व्यतीत करते।गले में बड़े मनकों वाले रुद्राक्ष की माला पहने शिव स्तोत्र का पाठ करते हुए प्रसाद जी बड़े दिव्य और भव्य लगते।वे अपने हाथों से शिव का श्रृंगार करते,अभिषेक करते और मस्तक पर महाकाल का भस्म प्रसाद धारण करते। शिवालय से उनका लगाव इतना प्रगाढ़ था कि कामायनी का आमुख और कुछ अन्य छंद वहीं बैठ कर लिखे गए। प्रसाद जी को नगर में या गंगा तट पर देखकर काशी निवासी हर हर महादेव का उद्घोष करते। यह सम्मान काशी में एकमात्र काशी नरेश को ही प्राप्त था।क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद को अंग्रेजों से बचाने के लिए उन्होंने कुछ समय तक अपने काली महल के मकान के भूगर्भ में रहने की ब्यवस्था की और उनकी सेवा में संतू नाम का एक नौकर भी रखा था।
स्वयं अपनी कविताओं की व्याख्या उन्होंने कभी नहीं की,कभी कोई छात्र उनसे इस निमित्त मिला भी तो उन्होंने बहुत विनम्रता से यह कह दिया कि पता नहीं किस भाव दशा में मैंने ये पंक्तियां लिखी थीं, अब उसको बता पाना असंभव है, इसलिए बेहतर होगा कि तुम अपने अध्यापक से ही इसे समझो। एक बार महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कविता के बारे में प्रसाद जी को लंबा उपदेश दिया, यह बात उन्हें खल गई और उन्होंने महावीर प्रसाद द्विवेदी के संपादन में निकलने वाली पत्रिका सरस्वती में कभी रचनाएं नहीं भेजी।हालांकि महावीर प्रसाद द्विवेदी से उनका मिलना जुलना पूर्ववत रहा।कामायनी का लज्जा सर्ग सुनकर द्विवेदी जी की आँखें भर आई थीं।
पहलवानी प्रसाद और वर्जिश प्रसाद जी का शौक था।वेअखाड़े में प्रतिदिन हजारों दंड बैठक करते और दही,दूध,घी वाली अच्छी खुराक लेते।उनके तीन विवाह हुए किंतु एकमात्र पुत्र हुए रत्नशंकर प्रसाद।दो पत्नियां अकाल मृत्यु को प्राप्त हुईं।
प्रसाद जी को मात्र ४७ वर्ष की अल्पायु मिली लेकिन इसी अल्पायु में पारंपरिक व्यवसाय को सम्हालते हुए उन्होंने विपुल साहित्य सृजन किया।
-रासबिहारी पाण्डेय
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