Friday, 15 March 2024

क्या लेखक को मॉडल बनना चाहिए?


रासबिहारी पाण्डेय ।


विज्ञापन कंपनियां पूंजीवादी व्यवस्था का अविभाज्य अंग हैं।अपने उत्पाद बेचने के लिए वे समाज में स्थापित और चर्चित चेहरों का इस्तेमाल करती हैं। सबसे अधिक विज्ञापन फिल्म कलाकार और क्रिकेटर करते हैं।ये सितारे जितने पैसे अपने मूल काम के लिए लेते हैं,उससे कई गुना अधिक १०-२० सेकंड के विज्ञापन के लिए लेते हैं। उत्पाद बेचने के लिए कंपनियां इन्हें अपना ब्रांड घोषित करती हैं ।पैसों के एवज में ये शख्सियतें वह सब कुछ बोलती हैं जो कंपनियां उनसे चाहती हैं। हर कंपनी के बस की बात नहीं कि वह किसी बड़े सितारे से अपने ब्रांड का विज्ञापन करा सके। दूसरी तीसरी श्रेणी की कंपनियां पैसे लेने के हिसाब से दूसरी तीसरी श्रेणी के सितारों को ढूंढ़ती हैं। जो कंपनियां सितारों का खर्च वहन नहीं कर सकतीं, वे साधारण मॉडलों से ही काम चला लेती हैं।अभिनेताओं के अतिरिक्त गीतकार जावेद अख्तर और वरुण ग्रोवर,गजल गायक जगजीत सिंह, निर्देशक अनुराग कश्यप आदि भी टीवी पर कुछ विज्ञापन कर चुके हैं। हाल ही में गजलगो आलोक श्रीवास्तव ने एक फर्नीचर का विज्ञापन किया है। लेखक और ब्लॉगर अशोक कुमार पांडेय ने अपने फेसबुक पोस्ट में एक बातचीत का स्क्रीनशॉट लगाते हुए लिखा है कि बेटिंग कंपनी द्वारा उन्हें एक  विज्ञापन के लिए ₹९०,०००का प्रस्ताव था जो उनके जैसे व्यक्ति के लिए कम नहीं है, मगर बात उसूलों की है, ९० करोड़ भी मिलें तो मैं इस तरह का समझौता नहीं करूंगा।ऐसी प्रतिबद्धता कोई लेखक ही दिखा सकता है। आज तमाम कलाकार सट्टे वाले ऐप, शराब,गुटका और पान मसाले का प्रचार करने में लगे हुए हैं। जब पैसे लेकर कवि, लेखक और पत्रकार भी कंपनियों के हित में झूठे दावों वाले विज्ञापन करने लगेगें तो वह समय हमारे समाज के लिए सबसे बुरा समय होगा। जीवन सिर्फ पाने का नाम नहीं है,आत्मा की आवाज सुन कर ठुकराने का भी नाम है। यह बात लेखक से बेहतर कौन समझ सकता है? पैसे के लिए जो लोग अपना ईमान गिरवी रख सकते हैं,वे हमारे प्रेरणास्रोत कैसे हो सकते हैं? 

स्वयं को बाजार के हवाले करने के सिर्फ फायदे ही नहीं नुकसान भी बहुत हैं।कई कवि/ लेखक सार्वजनिक रूप से यह कहने में फख्र महसूस करते हैं कि हम इतने पैसे लेते हैं... हम इतने देशों की यात्रा कर चुके हैं। इस तरह के बयान लेखकीय गरिमा के विरुद्ध हैं।हम किसी कवि / लेखक को इसलिए पढ़ते या सुनते नहीं हैं कि वह कितना महंगा या सस्ता है। हम उसके लेखन से प्रभावित होते हैं, इसलिए उसे पढ़ते हैं या उसका सम्मान करते हैं। पंत, प्रसाद, निराला, प्रेमचंद और शरतचंद्र कितने अमीर थे, इससे उनका स्तर तय नहीं हुआ। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि कुछ लेखकों की ज़रूरतें लेखन से पूरी नहीं हो पातीं, इसलिए पैसा कमाने के लिहाज से थोड़ा बाजारू होकर समझौता कर लेने में बुराई नहीं है। लुगदी साहित्य, घटिया फ़िल्में और उनके चालू गीत ऐसे ही लेखकों द्वारा लिखे जाते हैं जो समाज का बेड़ा गर्क  करने में अहम भूमिका निभाते हैं। आजीविका के लिए दूसरे काम करने चाहिए,लिखते समय लेखक को पूरी ईमानदारी बरतनी चाहिए । लेखन एक साधन है, इसे व्यवसाय बनाने के लिए किसी भी तरह का समझौता करना वाग्देवी का अपमान है।लेखन से बनी हुई अपनी छवि को पैसों के एवज में दूसरों के हित  साधन में लगाना अक्षम्य अपराध है।कबीर और रविदास को जुलाहा और मोची होने की वजह से कभी दोयम दर्जा नहीं दिया गया। तुलसी ने अकबर के दरबार का नवरत्न होना स्वीकार नहीं किया। अपनी चेतना को गिरवी रखकर लेखकीय  प्रतिबद्धता नहीं निभाई जा सकती।

कब रुकेगी सोशल मीडिया में देह की नुमायश

 

रासबिहारी पाण्डेय


अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के बरक्स स्त्री जीवन की पड़ताल आवश्यक है। 

ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसमें स्त्रियां आज पीछे रह गई हों।अंतरिक्ष विज्ञान, जल, थल और वायु सेना, प्रशासनिक सेवाएँ,साहित्य,संगीत ,कला और पत्रकारिता के साथ-साथ राजनीति के क्षेत्र में भी महिलाओं का भरपूर दखल है।

हर वर्ष घोषित होने वाले बड़े पुरस्कारों में महिलाओं की अच्छी खासी संख्या है। दुनिया का सबसे बड़ा पुरस्कार माने जाने वाले नोबेल और बुकर पुरस्कार के अतिरिक्त साहित्य,खेल, पत्रकारिता समेत अन्य पुरस्कार जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हैं और जिनमें कभी पुरुषों का ही वर्चस्व माना जाता था, हाल के दशकों में स्त्रियों को मिल चुके हैं।स्त्रियों को हर प्रकार का मंच और अभिव्यक्ति की आजादी हासिल है। पंचायती व्यवस्था कायम होने के बाद इन्हें ग्रामीण स्तर पर भी आगे आने का पर्याप्त अवसर मिल रहा है।कुछ समय पहले तक ग्रामीण अंचलों में पत्नी का नौकरी करना अच्छा नहीं माना जाता था किंतु आज अनेक परिवार ऐसे हैं जिनमें पत्नी ही नौकरी कर रही है और पति घर परिवार की देखभाल कर रहा है। पत्नी को कार्य स्थल तक छोड़ने जाना और फिर लेकर आना अब कोई शर्म की बात नहीं रह गई है। 

स्त्री की सामाजिक स्थिति और सामाजिक उत्थान का दायरा बहुत बढ़ा है।अनेक स्त्रियां घर और नौकरी दोनों को संभालते हुए बहुत मजबूती से जीवन की लड़ाई लड़ रही हैं। वे आत्मनिर्भर हैं और अपने जीवन का निर्णय स्वयं लेने में सक्षम हैं।टेलीविजन, सिनेमा,ओटीटी प्लेटफॉर्म और सोशल साइट्स पर  स्त्रियां न सिर्फ मजबूत भूमिका में हैं बल्कि यहां इनका अश्लीलतम  रूप भी दृष्टिगत हो रहा है जो अत्यंत आपत्तिजनक है।साहिर लुधियानवी ने कभी लिखा था- औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया....आज स्थिति काफी बदल चुकी है।स्त्री ने शोहरत और दौलत की हवस में खुद ही खुद को बाजार के हवाले कर दिया है। फेसबुक इंस्टाग्राम यूट्यूब और व्हाट्सएप के जरिए हर उम्र की महिलाएं दिन रात देह की नुमाइश में लगी हैं। सेंसर बोर्ड ने भी पर्याप्त छूट दे रखी है। अक्सर ऐसी फिल्में देखने को मिलती हैं जिन्हें देखने के बाद ऐसा नहीं लगता कि फिल्मों के लिए सेंसर जैसी कोई व्यवस्था भी है। ओटीटी चैनल और गूगल को नियंत्रण में रखने के लिए लंबी कवायद है किंतु जो सिनेमा सेंसर बोर्ड द्वारा प्रमाणित होकर ७० एम एम के पर्दे पर दिखाया जाता है, वहां मनोरंजन के नाम पर स्त्री देह की भरपूर नुमायश की खुली छूट है।कुछ बरस पहले तक फेसबुक पर अश्लील वीडियो देखने को नहीं मिलते थे, किंतु लॉकडाउन के समय पोर्नोग्राफी का बाजार जिस तरह गर्म हुआ उसकी चपेट में फेसबुक भी आ गया। फेसबुक ने अपने व्यापार को बढ़ावा देने के लिए ऐसे वीडियोज को अनुमति दे दी। यूट्यूब से बड़ी कमाई का जरिया अब फेसबुक बन चुका है इसलिए असंख्य लोग इस व्यापार में कूद पड़े।आज लगभग हर व्यक्ति के हाथ में स्मार्टफोन है और उसमें आवश्यक रूप से गूगल, फेसबुक,ह्वाट्सअप, इंस्टाग्राम आदि है।न  चाहते हुए भी हमारी आंखों के सामने ये अश्लील वीडियो गुजरते हैं। इन्हें बनाने वाले और इनमें काम करने वाले हमारे आस पास के ही लोग हैं।हर वीडियो का एक ही उद्देश्य है- कामुक कथानक के साथ स्त्री देह की नुमायश।ऐसे वीडियो सिर्फ कॉर्पोरेट द्वारा ही नहीं बनाये जा रहे हैं,गांव कस्बों में बैठी हर उम्र की स्त्रियां इसमें लिप्त हैं। दुखद यह है कि अधिकांश को अपने माँ बाप और पतियों का संरक्षण भी प्राप्त है।

इस अश्लीलता से निजात पाना मुश्किल तो है मगर असंभव नहीं।हमअपने स्तर पर इसके खिलाफ मुहिम तो छेड़ ही सकते हैं। 

लोगों ने मुझे मेरी आवाज से पहचाना

 

रासबिहारी पाण्डेय


गत बुधवार को अमीन सायानी नहीं रहे।'आवाज की दुनिया के बेताज बादशाह ' का संबोधन बहुतों के सम्मान में हुआ करता है, मगर अमीन सायानी इस संबोधन के लिए सर्वथा उपयुक्त थे।बिनाका गीतमाला प्रस्तुत करते हुए जो अपार लोकप्रियता उन्हें मिली, उसे कोई पार नहीं कर सका। सीधी सरल हिंदी वाले अपने खास लहजे में बात करने वाले अमीन सायानी सुदूर ग्रामीण अंचलों तक में लोकप्रिय थे।टीवी,सिनेमा के अलावा विज्ञापन फिल्मों में भी उनकी आवाज का भरपूर इस्तेमाल हुआ।आज भी डबिंग कलाकार या कॉमेडियन उनकी नकल करते हुए पाए जाते हैं। मैंने सन् २००१ में एक समाचार पत्र के लिए उनसे लंबी बातचीत की थी।

तब वे ग्रांट रोड में केम्स कॉर्नर के पास रहा करते थे। जब मैंने उनसे पूछा कि आज की  फिल्मों के संगीत का स्तर गिरता जा रहा है तो उनका कहना था कि हमारे जमाने में यानी सन् 40 से 75 तक का एक ऐसा दौर रहा कि  एक से एक प्रतिभाएं आईं और इतना अनूठा काम किया जिसकी मिसाल आज भी दी जाती है, लेकिन धीरे-धीरे फिल्मों की मधुरता की जगह धूम धड़ाका मारपीट एवं अंग प्रदर्शन हावी होने लगा।माध्यम की ज़रूरतें बदलने लगीं। आज की पीढ़ी एक जोशीला लय चाहती है,उसे फास्ट पॉप म्यूजिक रिदम चाहिए....तो यह कहना कि पहले का संगीत अच्छा था,अब कुछ अच्छा नहीं रहा,हर दृष्टि से ठीक नहीं होगा।


जब मैंने उनसे प्रति प्रश्न किया कि क्या एक खास वर्ग की अभिरुचि को ही कला का मापदंड मान लेना उचित होगा तो उन्होंने थोड़ा ठहर कर कहा कि अगर हमने गणतंत्र अपनाया है, डेमोक्रेसी के नियमों में बह चुके हैं तो जो ज्यादा लोग अच्छा और सही समझते हैं उन लोगों के लिए तो वह अच्छा हो ही जाता है। कई बहुत अच्छी और कलात्मक फिल्में आती हैं,पर उसे दर्शक नहीं मिलते। सिनेमा देखने वाला वर्ग केवल बुद्धिजीवियों का नहीं,  ऐसे में फिल्मकार कॉमन चीजें देना चाहते हैं जिससे उनका व्यावसायिक लाभ भी हो और लोगों का मनोरंजन भी हो जाय।जो हमें जीवन से नहीं मिलता, हम मनोरंजन से पाना चाहते हैं। दुनिया भर में मास्टरपीस मानी जाने वाली पाथेर पांचाली अगर आम तबके को दिखाई जाए तो उसे बोरियत होगी। जिसमें सोचने समझने और उलझन की जगह न हो,दर्शकों का झुकाव उधर ही होता है। फिल्मों में सेक्स के मुद्दे पर भी उन्होंने खुलकर बातचीत की। उनका मानना था कि सेक्स विज्ञान को लेकर अच्छी फिल्म बनाने वाले निर्माताओं की बेहद कमी है। 

उनकी सोच से सहमत हुआ जा सकता है।शरीर विज्ञान से हम बिल्कुल मुंह मोड़ लें,यह ठीक नहीं है। शायद इसी का परिणाम है कि एड्स के मामले में भारत दुनिया भर में नंबर दो पर है। हम अपने बारे में तो सोचते हैं लेकिन देश और समाज के बारे में सोचना भूल जाते हैं। अगर व्यापक सोच लेकर सकारात्मक दृष्टि से स्त्री पुरुष संबंधों  की व्याख्या सिनेमा के परदे पर आए तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए।

ओ माई गॉड२ में पंकज त्रिपाठी ने उसकी अच्छी नजीर पेश की है।

Wednesday, 6 March 2024

अक्षय तृतीया से जुड़ी कथायें

 अक्षय तृतीया से जुड़ी कथायें


रासबिहारी पाण्डेय


वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाता है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य और चंद्रमा इस दिन उच्च फलदायक राशि में रहते हैं।इस तिथि से इतने पौराणिक संयोग जुटे हैं कि इसे स्वयं सिद्ध मुहूर्त मान लिया गया है, इसीलिए इस दिन लोग जीवन के विविध मांगलिक कार्यों का शुभारंभ करते हैं।विवाह, गृह प्रवेश,उपनयन संस्कार, सोने चांदी के आभूषण एवं वाहनों की खरीद तथा नए व्यापार की शुरुआत के लिए यह दिन अत्यंत शुभ माना गया है। इस दिन दान पुण्य का भी विशेष महत्व है। इस दिन को किए गए पुण्य कर्म व्यक्ति को अगले जन्म में कई गुना अधिक होकर मिलते हैं।यही नहीं यदि इस दिन कोई बुरा कार्य किया जाता है तो उसका भी कई गुना अधिक बुरा फल मिलता है और उसे नर्क में जाकर भोगना पड़ता है।

अक्षय शब्द का अर्थ होता है- न समाप्त होने वाला अर्थात् जिस तिथि में किए गए पुण्य कर्मों का फल कभी समाप्त न हो।अक्षय तृतीया उसी तिथि का नाम है। इस तिथि से कई कथाएं जुड़ी हुई हैं। आज ही के दिन भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम जी की जयंती मनाई जाती है। शास्त्रों के अनुसार आज ही महर्षि वेदव्यास ने  महाभारत लिखना प्रारंभ किया और लेखन सहायक के रूप में मंगलमूर्ति गणेश को साथ रखा। इसी दिन द्रौपदी को अक्षय पात्र की प्राप्ति हुई थी। पांडवों के वनवास की अवधि में द्रोपदी को मिले इस पात्र की विशेषता यह थी कि जब तक द्रौपदी स्वयं नहीं खा लेती थी, इस पात्र से कितने भी लोगों को खिलाया जा सकता था। निर्धन सुदामा का द्वारकाधीश कृष्ण से मिलने और कृष्ण द्वारा दो लोकों की संपत्ति देने की कथा भी इसी तिथि से जुड़ी है।बंगाल में इस दिन व्यापारी अपने नए बही खाते की शुरुआत करते हैं।पंजाब के किसान इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में खेतों पर जाते हैं और रास्ते में मिलने वाले पशु पक्षियों के मिलने पर आगामी मौसम को शुभ शगुन मानते हैं।   वैशाख मास में शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को अक्षय तृतीया के रूप में मनाया जाता है। ज्योतिषीय गणना के अनुसार सूर्य और चंद्रमा इस दिन उच्च फलदायक राशि में रहते हैं।इस तिथि से इतने पौराणिक संयोग जुटे हैं कि इसे स्वयं सिद्ध मुहूर्त मान लिया गया है, इसीलिए इस दिन लोग जीवन के विविध मांगलिक कार्यों का शुभारंभ करते हैं।विवाह, गृह प्रवेश,उपनयन संस्कार, सोने चांदी के आभूषण एवं वाहनों की खरीद तथा नए व्यापार की शुरुआत के लिए यह दिन अत्यंत शुभ माना गया है। इस दिन दान पुण्य का भी विशेष महत्व है। इस दिन को किए गए पुण्य कर्म व्यक्ति को अगले जन्म में कई गुना अधिक होकर मिलते हैं।यही नहीं यदि इस दिन कोई बुरा कार्य किया जाता है तो उसका भी कई गुना अधिक बुरा फल मिलता है और उसे नर्क में जाकर भोगना पड़ता है।

अक्षय शब्द का अर्थ होता है- न समाप्त होने वाला अर्थात् जिस तिथि में किए गए पुण्य कर्मों का फल कभी समाप्त न हो।अक्षय तृतीया उसी तिथि का नाम है। इस तिथि से कई कथाएं जुड़ी हुई हैं। आज ही के दिन भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम जी की जयंती मनाई जाती है। शास्त्रों के अनुसार आज ही महर्षि वेदव्यास ने  महाभारत लिखना प्रारंभ किया और लेखन सहायक के रूप में मंगलमूर्ति गणेश को साथ रखा। इसी दिन द्रौपदी को अक्षय पात्र की प्राप्ति हुई थी। पांडवों के वनवास की अवधि में द्रोपदी को मिले इस पात्र की विशेषता यह थी कि जब तक द्रौपदी स्वयं नहीं खा लेती थी, इस पात्र से कितने भी लोगों को खिलाया जा सकता था। निर्धन सुदामा का द्वारकाधीश कृष्ण से मिलने और कृष्ण द्वारा दो लोकों की संपत्ति देने की कथा भी इसी तिथि से जुड़ी है।बंगाल में इस दिन व्यापारी अपने नए बही खाते की शुरुआत करते हैं।पंजाब के किसान इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में खेतों पर जाते हैं और रास्ते में मिलने वाले पशु पक्षियों के मिलने पर आगामी मौसम को शुभ शगुन मानते हैं। इस दिन उड़ीसा के जगन्नाथपुरी में रथयात्रा भी निकाली जाती है। जैन धर्मावलंबी इस तिथि को अपने चौबीस तीर्थंकरों में से एक ऋषभदेव से जोड़कर देखते हैं। ऋषभदेव ने सांसारिक मोह माया त्याग कर अपने पुत्रों के बीच अपनी सारी संपत्ति बांट दी और संन्यस्त हो गए। बाद में वे सिद्ध संत आदिनाथ के रूप में जाने गए। इस दिन भगवान विष्णु और महालक्ष्मी की विशेष पूजा अर्चना की जाती है ,आज पूजन में उन्हें चावल चढ़ाने का विशेष महत्व है। अक्षय तृतीया को विवाह के लिए सबसे शुभ मुहूर्त माना जाता है। इस दिन हुए विवाहों में स्त्री पुरुष में प्रेम बना रहता है और संबंध विच्छेद/ तलाक आदि की स्थिति नहीं बनती। इसी दिन से त्रेता युग की शुरुआत भी मानी जाती है।

अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनं द्वयं।

परोपकाराय पुण्याय पापाय परपीडनं।

अठारह पुराणों में महर्षि वेदव्यास ने निकष के रूप में दो ही बातें कही हैं- किसी पर उपकार करने से पुण्य मिलता है और किसी को कष्ट देने से पाप मिलता है।गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में यही बात कही है- 

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।

परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।

हमारे सभी पर्व त्यौहारों में प्रकारांतर से परोपकार और परहित की बात ही कही गई है।मनुष्य जीवन की सार्थकता इसी में है कि हम देश और समाज के  काम आ सकें।सिर्फ अपने लिए जिया तो क्या जिया!

Tuesday, 13 February 2024

सबसे कम खर्चा और सबसे अधिक चर्चा

 



सबसे कम खर्चा और सबसे अधिक चर्चा


रासबिहारी पाण्डेय

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इन दिनों सोशल मीडिया पर अभिनेता रणदीप हुड्डा और मॉडल लिन लैशराम की शादी की खूब चर्चा है। समर्थ होते हुए भी इन्होंने अपनी शादी को फिजूलखर्ची से दूर रखा और बहुत सादगीपूर्ण ढंग से मणिपुर की परंपरागत मैतेई रीति से विवाह की रस्में पूरी की।बड़े ड्रेस डिजाइनरों को नकारते हुए रणदीप  ने मैतेई रीति से शादी के लिए परंपरागत सफेद वस्त्र पहने थे,साथ ही एक बड़ी सफेद चादर ओढ़ रखी थी। लिन लेशराम ने पोटली पहनी थी जो मोटे कपड़े और मजबूत बांस से बनी होती है।गले में राजकुमारियों की तरह सजेआभूषण उनकी शोभा में चार चाँद लगा रहे थे। लिन हाल ही में करीना कपूर अभिनीत फिल्म जाने-जां में दिखी थीं।वे हैंड क्राफ्ट ज्वेलरी 'शमू शना' की फाउंडर भी हैं।

आमतौर पर मशहूर शख्सियतें शादियों को एक बड़ा इवेंट बना देती हैं।चार्टर्ड प्लेन से आने वाले मेहमानों, बड़े अभिनेता-अभिनेत्रियों की नृत्य प्रस्तुति, सैकड़ों प्रकार के लजीज व्यंजन और पेय पदार्थ,महंगे होटलों में की जाने वाली महंगी सजावट आदि मीडिया की खबरें बन जाती हैं। इतना सब कुछ होने के बावजूद कुछ दिनों बाद खबर आती है कि पति पत्नी  के रिश्ते सामान्य नहीं रह गए हैं और कुछ ही दिनों में तलाक भी होने वाला है।

केंद्र सरकार द्वारा नोटबंदी के  दौरान भी कर्नाटक के व्यवसायी पूर्व मंत्री जनार्दन रेड्डी की बेटी की शादी का उत्सव पांच दिनों तक चलता रहा। विशाल भव्यता और हैसियत जाहिर करने वाली इस शादी में करोड़ों रुपए खर्च हुए।मीडिया में इस शादी की इतनी चर्चा हुई कि रेड्डी को बाकायदा इडी की नोटिस भेजी गई।उसी दौरान मध्य प्रदेश के भिंड में दो आईएएस अधिकारियों आशीष वशिष्ठ और सलोनी की शादी इसलिए चर्चा में रही क्योंकि उन्होंने भव्य प्रदर्शन से किनारा करते हुए सीधे कोर्ट में जाकर शादी कर ली। शादी के दिखावे से अधिक उन्हें अपने काम से प्यार था।सूरत में संपन्न हुई भरम मारू और दक्षा परमार की शादी में मेहमानों को सिर्फ चाय परोसी गई थी जिसका जिक्र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने रेडियो कार्यक्रम मन की बात में भी की।शादियों में जो लोग दहेज नहीं लेने का ढ़ोंग करते हैं,उन्हें भी अक्सर मैंने यह कहते हुए सुना है कि हमारे मेहमानों का स्वागत सत्कार अच्छे ढंग से होना चाहिए बस, बाकी तो जो देना होगा आप अपनी लड़की को ही देंगे। मात्र एक शब्द 'स्वागत सत्कार' में पूरा विलास छुपा होता है।खान-पान, रहन-सहन और विदाई में थोड़ी भी कमी रह गई तो समधी जी की भृकुटि तन जाती है।

भारतीय जनमानस शादियों को शक्ति प्रदर्शन की तरह लेता है। जो अमीर हैं उन्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ता लेकिन सामान्य परिवारों के लोग भी शादियों के लिए अपने सारे जीवन की कमाई  रकम खर्च करने से गुरेज नहीं करते।कुछ लोग तो ऊँचे ब्याज दरों पर कर्ज लेकर भी यह शौक पूरा करते हैं।आज भी ऐसे अनेक परिवार हैं जिनके लिए विवाह का खर्च उठाना मुश्किल है।उत्तर भारतीय नेता चंद्रशेखर शुक्ला हर वर्ष अपने गृह जनपद में ऐसे सामूहिक विवाह अपने खर्चे से संपन्न कराते हैं। देशभर में ऐसे अनेक समाजसेवी हैं जो प्रकट या गुप्त रूप से शादियों में अपना योगदान देते हैं। समर्थ लोगों की सादगीपूर्ण शादियों से सबक लेते हुए आमजन को भी लोक लाज का भय त्याग कर अपने सामर्थ्य के अनुसार ही विवाह संस्कार संपन्न करना चाहिए।

तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में'

 



तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में'

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रासबिहारी पाण्डेय


बशीर बद्र ने बहुत पहले एक शेर कहा था-

'लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में 

तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में'


दंगों के दौरान लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। जिस घर को बनाने में लोगों की पूरी उम्र निकल जाती है,बात की बात में उसे जला दिया जाता है। आदमी आदमी के बीच में ऐसी दरार डाली जाती है कि पूरा सामाजिक ढाँचा बिखर जाता है।


ऐसा ही कुछ हुआ गत दिनों हरियाणा के मेवात-नूंह इलाके में।ब्रजमंडल यात्रा के दौरान हिंदू मुस्लिम पक्ष से ऐसा टकराव हुआ कि पुलिस बल तक हिंसा पर काबू पाने के लिए कम पड़ गया। गाड़ियों में तोड़फोड़ और आगजनी की गई। हंगामा इतना बढ़ा कि आम नागरिकों के साथ साथ दस से अधिक पुलिसकर्मी घायल हो गए।एक मंदिर में फँसे सैकड़ों लोगों को बहुत मुश्किल से बाहर निकाला गया।राजधानी दिल्ली से मात्र पचास किलोमीटर दूर मेवात से शुरू हुई यह हिंसा गुरुग्राम तक फैल गई।

थोड़े ही समय पहले बिहार के कुछ जिलों में मोहर्रम के समय ताजिया उठाने के दौरान भी ऐसी ही हिंसा भड़की थी।सभ्यता के विकास के इस मुकाम पर धर्म के आधार पर हो रही ये हिंसक वारदातें मनुष्यता के लिए अत्यंत चिंताजनक है।

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जहां हजारों वर्ष पूर्व से हम साझी विरासत में जी रहे हैं। यहाँ सभी धर्मों की संस्कृतियाँ समान रूप से आदर पाती रही हैं। साक्षरता और तकनीक के विकास ने हमारे भाईचारे और सौमनस्यता को मजबूती दी है, लेकिन समाज में आज भी कुछ ऐसे अराजक तत्व मौजूद हैं जो कुछ नासमझ लोगों को बरगला कर दंगे जैसे कुकृत्य को अंजाम देने में सफल हो जाते हैं।इन दंगों में न सिर्फ व्यक्तिगत और राष्ट्रीय संपत्ति का बड़े पैमाने पर नुकसान होता है बल्कि कितने ही निर्दोष लोगों की जानें चली जाती हैं। कितने ही बच्चे अनाथ हो जाते हैं, स्त्रियां विधवा हो जाती हैं और परिवार के एकमात्र कमाऊ सदस्य की मृत्यु से कितने ही परिवार भुखमरी के संकट से जूझने लगते हैं।जो आम आदमी दिन-रात आजीविका के संकट से जूझ रहा है या जिस अमीर वर्ग को अपना धन बढ़ाने और भोग ऐश्वर्य की चीजों से ही फुर्सत नहीं है, वह भला दंगे में कैसे लिप्त हो सकता हैं?दंगे जैसे कुकृत्य में तो वही लोग लिप्त होते हैं जो दंगे के तवे पर सियासत की रोटी सेंकते हैं और कुछ खास लोगों के खैरख्वाह बन कर उनके अहम को तुष्ट करते हैं।ऐसे तत्त्व इन अवसरों की ताक में रहा करते हैं। ज्ञानप्रकाश विवेक का एक शेर है-

 तेज चाकू कर लिए चमका के रख ली लाठियां,

धार्मिक उत्सव की सारी हो चुकी तैयारियां। 

 इन अवसरों का लाभ उठाकर ही वोटों का ध्रुवीकरण किया जाता है और किसी खास व्यक्ति की सियासी जीत सुनिश्चित की जाती है।इतिहास गवाह है कि धार्मिक आधार पर अलग होकर कोई देश कभी सुखी नहीं हुआ है। भारत और पाकिस्तान का बंटवारा धर्म के आधार पर ही हुआ था।भारत अपनी सर्व समावेशी संस्कृति के साथ दिन ब दिन तरक्की कर रहा है किंतु पाकिस्तान की हालत आज विश्व में सबसे अधिक दयनीय है।इसके मूल में कहीं न कहीं धर्म के आधार पर की जा रही उसकी मनमानियाँ और खुराफातें भी हैं।

भीष्म साहनी लिखित तमस,राही मासूम रजा लिखित टोपी शुक्ला,कमलेश्वर लिखित कितने पाकिस्तान,दूधनाथ सिंह लिखित आखिरी कलाम ,गीतांजलि श्री लिखित हमारा शहर उस बरस, आदि उपन्यासों में भारतीय समाज के उस घिनौने चेहरे का पर्दाफाश किया गया है जो दंगों के लिए खाद पानी का काम करता है।अगर ये कृतियां दंगाइयों तक पहुँचें तो उनके मन के जाले जरूर फटेंगे।

फिल्म 'ओपनहाइमर' ने की हिंदू आस्था पर चोट

 'ओपनहाइमर' ने की हिंदू आस्था पर चोट

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रासबिहारी पाण्डेय


हाल ही में भारतीय सिनेमाघरों में रिलीज हुई अमेरिकी फिल्मकार क्रिस्टोफर नोलन की फिल्म 'ओपनहाइमर' में श्रीमद्भगवद्गीता को गलत ढंग से प्रस्तुत करने की दुनिया भर में आलोचना हो रही है।इस बयोपिक में विश्व का पहला एटम बम बनाने वाले वैज्ञानिक जे. रॉबर्ट ओपेनहाइमर का किरदार निभा रहे सिलियन मर्फी अभिनेत्री फ्लोरेंस पुग के साथ सहवास करते हुए गीता के कुछ श्लोक पढ़ रहे हैं और उसका अर्थ समझाने का प्रयास कर रहे हैं।

गीता एक ऐसा ग्रंथ है जिसे दुनिया भर के विद्वान,कवि, लेखक, दार्शनिक अपने अपने संबोधनों में उद्धृत करते रहते हैं।ओपनहाइमर स्वयं भगवद्गीता से बहुत प्रभावित थे और गीता को सम्यक रूप से समझने के लिए उन्होंने संस्कृत भाषा का भी अध्ययन किया था। परमाणु परीक्षण के बाद उन्होंने गीता से यह श्लोक उद्धृत किया था-

कालोस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो

लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।

ऋतेsपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे येsवस्थिताःप्रत्यनीकेषु योधा:।।

।।११.३२।।

(अपना विराट रूप दिखाते हुए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- हेअर्जुन!मैं लोकों का नाश करने वाला महाकाल हूं। इस समय इन लोगों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूं।जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा लोग हैं, वे सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे।)

ओपेनहाइमर ने अहंकार में यह श्लोक उद्धृत किया था,यह जताने के लिए कि सिर्फ भगवान के हाथ में ही विनाश नहीं रह गया है,मैंने भी ऐसा बम निर्मित कर लिया है जिससे दुनिया खत्म कर सकता हूँ।ज्ञातव्य है कि16 जुलाई 1945 को लाल एलामोस  से 340 किलोमीटर दूर दक्षिण में ओपनहाइमर के नेतृत्व में प्रथम परमाणु परीक्षण किया गया था और फिर एक माह से भी कम समय में 6 अगस्त 1945 को अमेरिका ने जापान के हिरोशिमा और नागासाकी पर एटम बम बरसाया था।

  निर्देशक क्रिस्टोफर नोलन ने फिल्म को विवादास्पद और चर्चित बनाने के लिए जानबूझ कर श्रीमद्भगवद्गीता की पंक्तियों को नितांत अंतरंग क्षणों में आपत्तिजनक रूप से प्रयोग किया है। विश्व के सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ गीता के साथ-साथ यह सनातन संस्कृति का भी अपमान है।

 इससे भी बड़ा ताज्जुब यह है कि भारतीय सेंसर बोर्ड द्वारा इस सीन को बिना कोई आपत्ति जताये पास कर दिया गया और यह पूरे भारत में बिना किसी रोक टोक के चल रही है।

सूचना एवं प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने भी इस पर आपत्ति जताई है। दुनिया भर के फिल्मकारों की नजर भारत के युवा दर्शकों पर रहती है। उन्हें पता है कि अगर एक बार किसी तरह उनकी फिल्म भारत में विवादित हो गई तो न सिर्फ करोड़ों का बिजनेस होगा बल्कि मुफ्त में ही भरपूर पब्लिसिटी भी मिल जाएगी।भारतीय मीडिया इस पर  चर्चाएं आयोजित करेगा। कुछ लोग  इसके समर्थन में तो कुछ लोग इसके विरोध में लेख लिखेंगे। दोनों ही स्थितियों में लाभ उसी का होगा।अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कला में प्रयोग के नाम पर ऐसी छूट नहीं ली जा सकती कि करोड़ों लोगों की आस्था आहत हो जाए।

दोस्त!मेरे मज़हबी नग्मात को मत छेड़िए!

 


दोस्त!मेरे मज़हबी नग्मात को मत छेड़िए!

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रासबिहारी पाण्डेय


सनातन संस्कृत का शब्द है जिसका अर्थ है नित्य,अनादि,शाश्वत अर्थात् जो परंपरा से हमारे बीच मौजूद है वह सनातन है।  सनातन धर्म जिसे हिन्दू धर्म अथवा वैदिक धर्म के नाम से भी जाना जाता है,यह दुनिया के सबसे प्राचीनतम धर्म के रूप में जाना जाता है। भारत की सिंधु घाटी सभ्यता में हिन्दू धर्म के कई चिह्न मिलते हैं। 

 बाबर,औरंगजेब,चंगेज खान,महमूद गजनवी,मोहम्मद गोरी,अहमद शाह अब्दाली जैसे अनेक आक्रांता सनातन धर्म को ख़त्म करने का ख्वाब सँजोए हुए काल कवलित हो गए।हालांकि अपने जमाने में वे लाखों की संख्या में धर्मांतरण कराने में सफल रहे ,फिर भी सनातन की पताका निर्बाध लहरा रही है।भारतीय संस्कृति और सनातन के उन्मूलन के लिए मुगलों ने अनेक शहरों के नाम बदले,अनेक मंदिरों को तोड़कर मस्जिद बना डाले मगर भारत में वे अपने पंथ को पूरी तरह स्थापित नहीं कर सके।अंग्रेजों ने शिक्षा पद्धति बदली और भारत को अपने अनुरूप ढ़ालना चाहा, बावजूद इसके हमारी संस्कृति यथारूप विद्यमान है। धर्मनिरपेक्ष आजाद भारत में जब कोई सनातन के उन्मूलन की बात करता है तो हँसी आती है। हाल ही में एक समारोह में

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन के पुत्र डीएमके सरकार में मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने  कहा कि सनातन धर्म मलेरिया और डेंगू की तरह है जिसे समूल मिटाना ज़रूरी है।उन्हें शायद यह भान नहीं है कि अपनी पिछली पीढ़ियों का मुआयना करेंगे तो पता चलेगा कि वे स्वयं भी सनातन के ही वंशज हैं। उदयनिधि के अनुसार

सनातन धर्म एक सिद्धांत है जो जाति और धर्म के नाम पर लोगों को बांटता है,यह सनातन की सरासर गलत व्याख्या है।भगवान राम ने निम्न जाति के केवट और निषाद को गले लगाया।सबरी के जूठे बेर खाये और बगैर जाति धर्म जाने वन गमन की राह में ग्रामवासियों का स्वागत सत्कार स्वीकार किया।

श्रीमद्भागवत के दशम् स्कंध के चतुर्थ अध्याय के ३९वें श्लोक के अनुसार -

मूलं हि विष्णुर्देवानां यत्र धर्म: सनातन:।

तस्य च ब्रह्म गोविप्रास्तपो यज्ञा:सदक्षिणा:।।

देवताओं की जड़ विष्णु वहाँ रहते हैं, जहाँ सनातन धर्म है।सनातन धर्म की जड़ हैं- वेद, गौ ,ब्राह्मण,तपस्या और वे यज्ञ जिनमें दक्षिणा दी जाती है।

पश्चिम के देश सनातन धर्म से जुड़कर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव कर रहे हैं।इस्कॉन के मंदिरों में धोती कुर्ता पहने कृष्ण भक्तों को देखा जा सकता है।ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक पिछले दिनों मोरारी बापू की कथा में जय श्रीराम बोलते हुए दिखे।सनातन धर्म बिना किसी भेदभाव के 'वसुधैव कुटुंबकम्'यानी पूरी धरती अपना परिवार है,इस लीक पर चलनेवाला है लेकिन उदयनिधि जैसे लोग गलत व्याख्या करके समाज में विषमता का जहर घोलते हैं।

राजनीति का अंतिम लक्ष्य सत्ता प्राप्ति है।जनमत के ध्रुवीकरण के लिए नेतागण ऐसे जुमले उछालते हैं ताकि उनके पक्ष में माहौल बने।

ऐसे नेताओं के लिए अदम गोंडवी के ये शेर बहुत मौजूं हैं-

हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ

मिट गए सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िए


हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है

दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए


छेड़िए इक जंग, मिल-जुल कर ग़रीबी के ख़िलाफ़

दोस्त! मेरे मज़हबी नग़्मात को मत छेड़िए।


जीवन जीने की कला सिखाती है गीता

 



जीवन जीने की कला सिखाती है गीता


रासबिहारी पाण्डेय


गीता जयंती पर देश भर में अनेक कार्यक्रम आयोजित हुए। मानव जीवन और सृष्टि के रहस्य को समझने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता सबसे अनुपम रचना है। गीता हमें जीवन जीने की कला सिखाती है। जो लोग यह जानना चाहते हैं कि उनकी उलझनों और परेशानियों का कारण क्या है और उसका निदान क्या है, उन्हें गीता का पारायण अवश्य करना चाहिए। गीता के अनुसार हर मनुष्य को स्वाभाविक स्वधर्म में प्रवृत्त होना चाहिए।

हमें किसी भय या लोभ में पड़कर स्वधर्म का त्याग नहीं करना चाहिए क्योंकि धर्म नित्य है और सुख-दुख अनित्य है। यहां धर्म का तात्पर्य किसी पंथ या जाति से नहीं बल्कि स्वाभाविक कर्म से है। गीता के 18वें अध्याय के 48 वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -

सहजं कर्म कौंतेय सदोषमपि न त्यजेत्।

सर्वारंभा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।

हमें अपने स्वभाव के अनुसार ही कार्य करना चाहिए भले ही वह दोषमय हो क्योंकि जैसे अग्नि के साथ प्रच्छन्न रूप से धुआं भी जुड़ा हुआ है,उसी प्रकार संसार में जितने भी कार्य हैं, हर कार्य में कोई न कोई दोष छुपा हुआ है।

उदाहरण के तौर पर वकालत का पेशा ऐसा है कि उसमें झूठ का सहारा लेना ही पड़ता है। सत्य को साबित करने के लिए कभी-कभी असत्य बोलना पड़ता है। व्यापारी को लाभ कमाने के लिए और अपना व्यवसाय चलाने के लिए असत्य का सहारा लेना पड़ता है। कहना पड़ता है कि मैं आपसे कोई लाभ नहीं ले रहा लेकिन यह भी सत्य है कि व्यापारी जितने में खरीदे उतने में ही बेच दे तो उसको कोई लाभ नहीं होगा, फिर उसका जीवन निर्वाह कैसे होगा?डॉक्टर को मरीज के हित में कभी-कभी असत्य बोलना पड़ता है, क्योंकि सच सुनकर रोगी के स्वास्थ्य पर विपरीत असर हो सकता है।डॉक्टर को मरीज के हित में कभी-कभी उसका कोई अंग भी निकालना पड़ता है,चीरफाड़ करनी पड़ती है,लेकिन उसे इसका दोष नहीं लगता। डॉक्टर अगर अपने लाभ के लिए लंबे समय तक मरीज का इलाज चलाए,वकील अपने लाभ के लिए मुकदमे  को तारीख पर तारीख दिलाता जाए,व्यापारी पैसा लेकर सही समय पर सामान न दे तो ये दोष क्षमा के योग्य नहीं होंगे। उन्हें इसका पाप लगेगा।गीता के अनुसार स्वधर्म का पालन करते हुए यदि हमारी मृत्यु भी हो जाती है तो वह श्रेष्ठ है-      

स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।'

हमारे इंद्रियों और हमारी चेतना के बारे में गीता में विस्तार से चर्चा है। हम मन पर कैसे विजय प्राप्त करें,क्रोध पर कैसे विजय प्राप्त करें, ये सारी बातें विस्तार से वर्णित हैं? गीता का सबसे बड़ा उपदेश कर्म करते हुए फल की इच्छा से विरक्त रहना है। 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन।

मा कर्म फलहेतुर्भूतेसंड़्गोस्त्वकर्मणि।।

अगर कर्म करते हुए हम अपने मनचाहा  फल की इच्छा रखेंगे तो बहुत संभव है कि हमें दुखी होना पड़ेगा।यदि शिक्षक यह सोचने लगे कि मेरे विद्यार्थी उत्तीर्ण होंगे कि नहीं,सैनिक यह सोचने लगें कि हम युद्ध में जीतेंगे कि नहीं,किसान यह सोचने लगें कि क्या पता बरसात होगी कि नहीं, यदि वे इस द्वंद्व में पड़ जाएंगे तो अपना कार्य उचित ढंग से नहीं कर पाएंगे, क्योंकि फल में उनका कभी अधिकार है ही नहीं।वे फल के बारे में नहीं सोचते इसीलिए अपना उत्तम दे पाते हैं।अगर इस श्लोक को हम अपने जीवन का सूत्र वाक्य बनाएं तो जीवन मेंं कभी अवसाद का सामना नहीं करना पड़ेगा।

साहित्यकारों को भारत रत्न क्यों नहीं ?

 



साहित्यकारों को भारत रत्न क्यों नहीं ?


रासबिहारी पाण्डेय


केंद्र सरकार ने लालकृष्ण आडवाणी,बिहार के दो बार मुख्यमंत्री रह चुके स्व.कर्पूरी ठाकुर,चौधरी चरण सिंह,वैज्ञानिक एस रामानाथन और पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहाराव को सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रत्न  देने का निर्णय किया है। ऐसी शख्सियतों को यह सम्मान देना सर्वथा उचित है। ऐसी कई और शख्सियतें हैं जिन पर हमारे देश को नाज है। उन्हें चिन्हित कर समाज के सामने आदर्श उपस्थित करना हमारी जिम्मेदारी है। 

भारत रत्न प्रदान करने की शुरुआत २ जनवरी १९५४ को हुई।तब तीन विभूतियों चंद्रशेखर वेंकट रमन, सर्वपल्ली राधाकृष्णन और के सी राजगोपालाचारी को 

एक साथ यह सम्मान प्रदान किया गया था। इसके बाद भी कई बार भारत रत्न के लिए तीन व्यक्तियों के नाम की घोषणा एक साथ हुई।जनता पार्टी ने१९७७ में इसे बंद कर दिया था।१९८० में पुन:शुरुआत हुई तो समाज सेविका मदर टेरेसा को यह सम्मान दिया गया। भारत रत्न के लिए यह प्रावधान नहीं कि इसे सिर्फ भारतीय नागरिक को ही प्रदान करना है, इसलिए दो गैर भारतीय,१९८७ में खान अब्दुल गफ्फार खान और १९९७ में  नेल्सन मंडेला को यह सम्मान प्रदान किया गया। भारत रत्न अधिकतर राजनीतिक शख्सियतों को दिया गया है। गायन, संगीत और खेल जगत को तो यह सम्मान मिल चुका है किंतु किसी भी भारतीय भाषा के किसी वरिष्ठ साहित्यकार को अब तक यह सम्मान नहीं दिया गया है। १९५५ में डॉ.भगवान दास को भारत रत्न दिया गया था किंतु उनकी ख्याति लेखक के रूप में कम शिक्षाशास्त्री,स्वतंत्रता सेनानी और कई संस्थाओं के संस्थापक के रूप में अधिक है। हिंदी देश को एकता के सूत्र में पिरोने वाली सबसे प्रमुख भारतीय भाषा है। क्या हिंदी का कोई प्रतिनिधि रचनाकार या एक से अधिक रचनाकार भारत रत्न पाने की योग्यता नहीं रखते ?क्या हमारे निराला,प्रेमचंद या रवींद्रनाथ ठाकुर को यह सम्मान नहीं मिलना चाहिए? 

साहित्य तो देश और काल की सीमाओं को लांघ जाता है। गोर्की,चेखव,टॉल्सटाय,तुलसी,कबीर जैसे रचनाकार सिर्फ अपने देश के गौरव नहीं,पूरे विश्व और समूची मानवता के धरोहर हैं। शब्दों की पहुंच सबसे अधिक है। सोम ठाकुर एक गीत में कहते हैं- 

उनके परचम भले ही किलों पर रहे

पर दिलों पर हुकूमत हमारी रही।

...बावजूद इसके क्या इस सम्मान के जरिये साहित्यिकों की शिनाख्त नहीं की जानी चाहिए ?

साहित्यकारों के साथ सत्ता हमेशा अन्याय करती है।जीवन काल में बिरले रचनाकारों को ही अपेक्षित मान और धन प्राप्त हो पाता है।नेता,अभिनेता और कलाकार समाज से अपने अवदान के बदले जितना प्राप्त कर पाते हैं,क्या साहित्यकार उतना प्राप्त कर पाता है...उत्तर होगा-बिलकुल नहीं,जबकि उसका अवदान इन सबसे अधिक मायने रखता है।

एक बात और... विभिन्न क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्यों के जरिये सेलीब्रिटी का दर्जा पा चुकी वे शख्सियतें जो पैसा कमाने की रेस में टीवी पर तेल,साबुन और सीमेंट बेचने में लगी हैं,क्या उन्हें हम अपना भारत रत्न स्वीकार कर पाएंगें? चुटकुलों और फिल्मी पैरोडियों को कवि सम्मेलनों में सुना सुना कर कवि बने कुछ लोग अपनी राजनीतिक पहुंच के कारण पद्मश्री हासिल कर चुके हैं।उनके बारे में समाज में कितनी वितृष्णा है?क्या भविष्य में भारत रत्न का भी यही हाल होने वाला है कि हम चाय पीते हुए टीवी पर उसे यह बताते हुए पायें कि कौन सी चाय और कौन सा नमकीन सबसे अच्छा है?