तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में'
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रासबिहारी पाण्डेय
बशीर बद्र ने बहुत पहले एक शेर कहा था-
'लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में'
दंगों के दौरान लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं। जिस घर को बनाने में लोगों की पूरी उम्र निकल जाती है,बात की बात में उसे जला दिया जाता है। आदमी आदमी के बीच में ऐसी दरार डाली जाती है कि पूरा सामाजिक ढाँचा बिखर जाता है।
ऐसा ही कुछ हुआ गत दिनों हरियाणा के मेवात-नूंह इलाके में।ब्रजमंडल यात्रा के दौरान हिंदू मुस्लिम पक्ष से ऐसा टकराव हुआ कि पुलिस बल तक हिंसा पर काबू पाने के लिए कम पड़ गया। गाड़ियों में तोड़फोड़ और आगजनी की गई। हंगामा इतना बढ़ा कि आम नागरिकों के साथ साथ दस से अधिक पुलिसकर्मी घायल हो गए।एक मंदिर में फँसे सैकड़ों लोगों को बहुत मुश्किल से बाहर निकाला गया।राजधानी दिल्ली से मात्र पचास किलोमीटर दूर मेवात से शुरू हुई यह हिंसा गुरुग्राम तक फैल गई।
थोड़े ही समय पहले बिहार के कुछ जिलों में मोहर्रम के समय ताजिया उठाने के दौरान भी ऐसी ही हिंसा भड़की थी।सभ्यता के विकास के इस मुकाम पर धर्म के आधार पर हो रही ये हिंसक वारदातें मनुष्यता के लिए अत्यंत चिंताजनक है।
भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है जहां हजारों वर्ष पूर्व से हम साझी विरासत में जी रहे हैं। यहाँ सभी धर्मों की संस्कृतियाँ समान रूप से आदर पाती रही हैं। साक्षरता और तकनीक के विकास ने हमारे भाईचारे और सौमनस्यता को मजबूती दी है, लेकिन समाज में आज भी कुछ ऐसे अराजक तत्व मौजूद हैं जो कुछ नासमझ लोगों को बरगला कर दंगे जैसे कुकृत्य को अंजाम देने में सफल हो जाते हैं।इन दंगों में न सिर्फ व्यक्तिगत और राष्ट्रीय संपत्ति का बड़े पैमाने पर नुकसान होता है बल्कि कितने ही निर्दोष लोगों की जानें चली जाती हैं। कितने ही बच्चे अनाथ हो जाते हैं, स्त्रियां विधवा हो जाती हैं और परिवार के एकमात्र कमाऊ सदस्य की मृत्यु से कितने ही परिवार भुखमरी के संकट से जूझने लगते हैं।जो आम आदमी दिन-रात आजीविका के संकट से जूझ रहा है या जिस अमीर वर्ग को अपना धन बढ़ाने और भोग ऐश्वर्य की चीजों से ही फुर्सत नहीं है, वह भला दंगे में कैसे लिप्त हो सकता हैं?दंगे जैसे कुकृत्य में तो वही लोग लिप्त होते हैं जो दंगे के तवे पर सियासत की रोटी सेंकते हैं और कुछ खास लोगों के खैरख्वाह बन कर उनके अहम को तुष्ट करते हैं।ऐसे तत्त्व इन अवसरों की ताक में रहा करते हैं। ज्ञानप्रकाश विवेक का एक शेर है-
तेज चाकू कर लिए चमका के रख ली लाठियां,
धार्मिक उत्सव की सारी हो चुकी तैयारियां।
इन अवसरों का लाभ उठाकर ही वोटों का ध्रुवीकरण किया जाता है और किसी खास व्यक्ति की सियासी जीत सुनिश्चित की जाती है।इतिहास गवाह है कि धार्मिक आधार पर अलग होकर कोई देश कभी सुखी नहीं हुआ है। भारत और पाकिस्तान का बंटवारा धर्म के आधार पर ही हुआ था।भारत अपनी सर्व समावेशी संस्कृति के साथ दिन ब दिन तरक्की कर रहा है किंतु पाकिस्तान की हालत आज विश्व में सबसे अधिक दयनीय है।इसके मूल में कहीं न कहीं धर्म के आधार पर की जा रही उसकी मनमानियाँ और खुराफातें भी हैं।
भीष्म साहनी लिखित तमस,राही मासूम रजा लिखित टोपी शुक्ला,कमलेश्वर लिखित कितने पाकिस्तान,दूधनाथ सिंह लिखित आखिरी कलाम ,गीतांजलि श्री लिखित हमारा शहर उस बरस, आदि उपन्यासों में भारतीय समाज के उस घिनौने चेहरे का पर्दाफाश किया गया है जो दंगों के लिए खाद पानी का काम करता है।अगर ये कृतियां दंगाइयों तक पहुँचें तो उनके मन के जाले जरूर फटेंगे।
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