Tuesday, 13 February 2024

जीवन जीने की कला सिखाती है गीता

 



जीवन जीने की कला सिखाती है गीता


रासबिहारी पाण्डेय


गीता जयंती पर देश भर में अनेक कार्यक्रम आयोजित हुए। मानव जीवन और सृष्टि के रहस्य को समझने के लिए श्रीमद्भगवद्गीता सबसे अनुपम रचना है। गीता हमें जीवन जीने की कला सिखाती है। जो लोग यह जानना चाहते हैं कि उनकी उलझनों और परेशानियों का कारण क्या है और उसका निदान क्या है, उन्हें गीता का पारायण अवश्य करना चाहिए। गीता के अनुसार हर मनुष्य को स्वाभाविक स्वधर्म में प्रवृत्त होना चाहिए।

हमें किसी भय या लोभ में पड़कर स्वधर्म का त्याग नहीं करना चाहिए क्योंकि धर्म नित्य है और सुख-दुख अनित्य है। यहां धर्म का तात्पर्य किसी पंथ या जाति से नहीं बल्कि स्वाभाविक कर्म से है। गीता के 18वें अध्याय के 48 वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं -

सहजं कर्म कौंतेय सदोषमपि न त्यजेत्।

सर्वारंभा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृताः।।

हमें अपने स्वभाव के अनुसार ही कार्य करना चाहिए भले ही वह दोषमय हो क्योंकि जैसे अग्नि के साथ प्रच्छन्न रूप से धुआं भी जुड़ा हुआ है,उसी प्रकार संसार में जितने भी कार्य हैं, हर कार्य में कोई न कोई दोष छुपा हुआ है।

उदाहरण के तौर पर वकालत का पेशा ऐसा है कि उसमें झूठ का सहारा लेना ही पड़ता है। सत्य को साबित करने के लिए कभी-कभी असत्य बोलना पड़ता है। व्यापारी को लाभ कमाने के लिए और अपना व्यवसाय चलाने के लिए असत्य का सहारा लेना पड़ता है। कहना पड़ता है कि मैं आपसे कोई लाभ नहीं ले रहा लेकिन यह भी सत्य है कि व्यापारी जितने में खरीदे उतने में ही बेच दे तो उसको कोई लाभ नहीं होगा, फिर उसका जीवन निर्वाह कैसे होगा?डॉक्टर को मरीज के हित में कभी-कभी असत्य बोलना पड़ता है, क्योंकि सच सुनकर रोगी के स्वास्थ्य पर विपरीत असर हो सकता है।डॉक्टर को मरीज के हित में कभी-कभी उसका कोई अंग भी निकालना पड़ता है,चीरफाड़ करनी पड़ती है,लेकिन उसे इसका दोष नहीं लगता। डॉक्टर अगर अपने लाभ के लिए लंबे समय तक मरीज का इलाज चलाए,वकील अपने लाभ के लिए मुकदमे  को तारीख पर तारीख दिलाता जाए,व्यापारी पैसा लेकर सही समय पर सामान न दे तो ये दोष क्षमा के योग्य नहीं होंगे। उन्हें इसका पाप लगेगा।गीता के अनुसार स्वधर्म का पालन करते हुए यदि हमारी मृत्यु भी हो जाती है तो वह श्रेष्ठ है-      

स्वधर्मे निधनं श्रेय: परधर्मो भयावह:।'

हमारे इंद्रियों और हमारी चेतना के बारे में गीता में विस्तार से चर्चा है। हम मन पर कैसे विजय प्राप्त करें,क्रोध पर कैसे विजय प्राप्त करें, ये सारी बातें विस्तार से वर्णित हैं? गीता का सबसे बड़ा उपदेश कर्म करते हुए फल की इच्छा से विरक्त रहना है। 

कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन।

मा कर्म फलहेतुर्भूतेसंड़्गोस्त्वकर्मणि।।

अगर कर्म करते हुए हम अपने मनचाहा  फल की इच्छा रखेंगे तो बहुत संभव है कि हमें दुखी होना पड़ेगा।यदि शिक्षक यह सोचने लगे कि मेरे विद्यार्थी उत्तीर्ण होंगे कि नहीं,सैनिक यह सोचने लगें कि हम युद्ध में जीतेंगे कि नहीं,किसान यह सोचने लगें कि क्या पता बरसात होगी कि नहीं, यदि वे इस द्वंद्व में पड़ जाएंगे तो अपना कार्य उचित ढंग से नहीं कर पाएंगे, क्योंकि फल में उनका कभी अधिकार है ही नहीं।वे फल के बारे में नहीं सोचते इसीलिए अपना उत्तम दे पाते हैं।अगर इस श्लोक को हम अपने जीवन का सूत्र वाक्य बनाएं तो जीवन मेंं कभी अवसाद का सामना नहीं करना पड़ेगा।

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